गालियों में नाद ओंकार की, शुद्र शुद्ध दिखाई देता है,
तुम जब-जब कहते हो ”प्रेम”, मुझे ”रुद्र” सुनाई देता है |
भांग-धतूरे का क्या प्रयोजन, जब नशा ”ध्यान” का चढता है,
जो मस्ती से डूब जाये यहाँ, किनारा उसे ही मिलता है|
भस्म रंगे जब मन को, सबमें शिव दिखाई देता है,
तुम जब-जब कहते हो ”प्रेम”, मुझे ”रुद्र” सुनाई देता है |

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बात छिढ़ी रात बे रात
उन दोनो के बीच में-
ज्ञान कहता-
”माया है तू, उन्मुक्त मन चाहे बाँधना,
ध्यानियों का मार्ग मै हूँ, ज्ञानियों की मैं ही साधना !”

प्रेम हौले से मुस्काई,
ज़रा रूक कर फिर बोली,
”बंजर है सब मेरे बिना, असंभव है ज्ञान में वृद्धि,
समाधि की बीज हूँ मैं, हर साधना की मैं ही सिद्धि!”

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मैं अल्हड़ किसी सागर की मतवाली लहरों सी, 
और तुम? उस सागर की गहराइयों से मौन |

मेरा अल्हड़पन तुम्हारा है,
जिसे तुमने समाधि से शांत किया है |

तुम्हारा मौन मेरा है,
जिसने अनंतता को खुद में समा लिया है |

सतह में, मैं वो शव हूँ, जो दिख रहा है |
गहराई में, मैं ही शिव हूँ, जो देख रहा है |

लहर ही गहराई है, अल्हड़ है मौन,
तेरा शिव तुझमें है, जान- तू है कौन?


#सप्रेम समर्पित मेरे इष्ट, मेरे महादेव…मेरे गुरु को |