माई! गुरु-घर करनी चाकरी।
महामाई! गुरु-घर करनी चाकरी।
जतन से सर पर
धरूँ मैं अपनी
छी-छी गठरी
पाप-पुण्य की।
गुण-अवगुण की
तेहरी बना
भर लूँ झोली
ज़रा मैं अपनी।
चप्पल-उप्पल
तुम ही रख लो
खाली पैर ही
दौड़ लगाईं।
सुनो ना महामाई!
गुरु-घर मुझको करनी चाकरी।
भोर तड़के मेरा सूरज जागे
मैं जागूँ गुरु संग।
आँगन धोऊँ,
झाड़ू लगाऊँ,
गाऊँ हरि-अभंग।
तन धोयी
संग मन भी धोयी
धोयी रूह – ‘अनंत’।
मंदिर बैठे ठाकुर मेरे
मिलने जाऊँ तुरंत।
हज़ार नाम की
माला रटलूँ,
दीपक-बाती
उनको कर लूँ,
दौड़ू किशमिश
खाते-खाते
जीवंत हरि के द्वार।
अहा! किरपा भई अपार!
गर्भ-गृह के ठाकुर मेरे
गुरु में लिए आकार
मूरत में निर्गुण व्याप्त
गुरु-घर में साकार!
स्वामी मेरे करें नाश्ता
मैं देखूँ बुत्त बन।
तन से माँ का
आँचल ढलका
ओढ़ें वह तुरंत।
आँचल का रंग- पिघली भक्ति
मुझपे भी चढ़ आई।
काली रूह हुई बसंती
जी-भर गेरू नहाई!
सुनो ना महामाई!
गुरु-घर मुझको करनी चाकरी।
फिर मैं प्रभु का कमरा झाडूँ,
झड़-झड़ गंदा बाहर निकालूँ।
गुरु-घर की धूल मिली है,
मुट्ठी भर-भर मन पर डालूँ।
उनका कमरा मस्त चकाचक
मैं पदरज में डूब ही जाऊँ।
शायद हो धवल मैं इससे
कभी ऐसे ही
उनमें समाऊँ।
प्रभु मध्याह्न
को जब आये
प्रेम से गुरुवार
खाना खाएँ।
मैं फिर से
बुत्त होकर देखूँ,
Blackhole मेरे
भोग लगाए!
आत्मा मेरी
अनहद गाये!
मन में घोर
शान्ति छाई।
प्रकृति पूरी
उनमे समाई।
सुनो ना महामाई!
गुरु-घर मुझको करनी चाकरी।
खाना खाकर
गुरु जो सोयें
मैं धीमे-धीमे
लोरी गाऊँ।
Roles Reverse
करके मैं उनको
मम्मा बन
थपकी लगाऊँ।
नन्हे-से तो हैं गुरु मेरे,
शिव-सा देह पर
नर्म जैसे माई!
सुनो ना महामाई!
गुरु-घर मुझको करनी चाकरी।
योग निद्रा में हरि जो सोयें,
मैं फिर से दौड़ लगाऊँ।
मंदिर में ठाकुर है बैठे,
उनको सब मैं बताऊँ।
निर्गुण से जो बातें हुई तो,
फिर काम पर लग जाऊँ।
अब मंदिर को भी
झाडूँ-पोछूँ,
हरि-घर
मैं सजाऊँ।
शाम हुई तो
अम्मा बुलाऊँ
1000 नाम से तुमको
पर होता
तब ही
कुछ अद्भुत
समझ ना आये
मुझको!
नाम लेकर
तुझे बुलाई
सीढ़ियों से
गुरु-सवारी आई
ऐसा कैसे
संभव होता!
जो ना होते वह
स्वयं महामाई!
गूढ़ -गूढ़
सब बातें उनकी
शैतान है
मेरे रघुराई!
सुनो ना महामाई!
गुरु-घर मुझको करनी चाकरी।
आकर गुरु जो आगे बैठें
मैं नित-नित ही बौराऊँ।
हरि को देखूँ, गुरु निहारूँ,
भेद समझ ना पाऊँ!
मूरत मानस बनकर बैठा,
या मानस हुआ है बुत्त?
कैसा गोरखधंदा है यह,
आये समझ ना कुछ!
मिश्री-घुली वाणी उनकी
कच्छपी की है अम्मा।
ब्रह्मज्ञान की स्वयं मूर्ती
जैसे शम्भू अजन्मा!
मस्ती करें, लोग हँसायें
साधू-वेश में विष्णु आयें!
हँस-हँस पेट दुखाई!
सुनो ना महामाई!
गुरु-घर मुझको करनी चाकरी।
रात का प्रभु
जब भोग लगाए
अखंड तारे
गिर-गिर आयें
ब्रम्हांड सुंदरी
नज़रे झुकाये
हौले-हौले
रोटी खाये!
गुरु मेरे राजा बेटा
मर-मर जान सुखाये
इत्ता काम, इत्ता काम
बिस्तर रास ना आये!
रात को जब सोने आयें
मैं जग-जग पैर दबाऊँ!
गुरु ही माई,
गुरु नारायण,
गुरु में शिव अनंग!
मंतर-तंतर
मैं ना जानूँ
उनमे रहूँ मलंग।
रामगाथा सुना दी
अब भी मन ना पिघला?
दया ना आई?
भिक्षा में दीक्षा दिला दें,
Sniggy-मुंडी पर
रहम बरसाई!
सुनलो ना महामाई!
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