दिन 2 : महाविद्या तारा
तत्त्व : ब्रह्मज्ञान और मोक्ष
यह संसार द्वैत से निर्मित है। हर एक चीज़ अपने विपरीत के साथ स्पंदित होती है। महामाया के दोनों स्तन इसी द्वैत को दर्शाते हैं। और सही मानिये तो, द्वैत है तो ही सृष्टि है! अद्वैत की स्थति में सृष्टि पुनः आदि पराशक्ति में विलीन हो जायेगी; ब्रम्हांड की भाषा में तिरोधान और मनुष्य की भाषा में मृत्यु। सोचने की बात ये है कि जिसने द्वैत को ही अपने में धारण कर रखा हो, अपने वश में कर रखा हो, क्या अद्वैत उसके हाथ में नहीं? अद्वैत यानी तिरोधान; ब्रम्हांड में, निर्विकल्प समाधि में या अपने स्व-रूप में विलीन हो जाना या अपने इष्ट से एक हो जाना। क्या हर साधना का परम लक्ष्य बस यही नहीं है!
महामाया ने द्वैत को अपने दोनों स्तनों में धारण कर लिया है और अहर्निश इस ब्रम्हांड को माँ द्वैत से ही जीवन दे रही है। आप किसी चीज़ को, किसी ऊर्जा को, किसी भावना को तभी वश में कर सकते हैं जब आप उससे ज़रा ऊपर या परे हैं, नहीं? जैसे कठपुतलियों को खिलाने के लिए कठपुतली-कलाकार को अपने हाथों को मंच से ऊपर उठाकर चलाना होता है, ठीक वैसे।
समुद्र मंथन के वक़्त महादेव ने करुणा की सारी हदें पार कर दी और कालकूट निगल गए। आदियोगी हैं, बेशक! पर शक्ति के बिना शिव शव हैं। तंत्र में इसी कारण से भैरवी की भूमिका सर्वोपरि है। इसपर फिर कभी। बात सिर्फ इतनी है फिलहाल कि तंत्र महादेव की विद्या है और इसमें शक्ति की प्रधानता आदिकाल से स्थापित है।
जब महादेव विष के प्रभाव से जलने लगें तब राजराजेश्वरी महामाई ने महादेव को अपने स्तनों से लगा लिया। अगर शिव ही अद्वैत में समा जायें तो इस ब्रम्हांड से हर एक कला, हर विद्या, हर एक ज्ञान, संगीत, नृत्य, साधना, यज्ञ, भाषा,योग सब उनमें विलीन होकर अदृश्य हो जाएंगे। विष से उत्पन्न जलन उन्हें अद्वैत की तरफ ले जा रही थी – तिरोधान – मृत्यु! जगतजननी ने इस विध्वंस को रोकने के लिए शिव को अपने स्तनों से दूध पिलाया जो साक्षात द्वैत हैं – सृष्टि हैं – जीवन हैं!
तंत्र के पथ पर भी जब-जब साधक विचलित होगा या विकारों से निकलना असंभव-सा लगेगा, तब-तब या तो स्वयं महादेवी या महादेवी स्वरुप में स्त्री-शक्ति भैरवी बन अपने दैविक अंश के ऊर्जा प्रवाह से उसे बचा ही लेगी।
शिव को तारने के भाव में आई महामाई के इसी भाव को तारा महाविद्या कहते हैं। तारा वो जो साधक को तार दे। भौतिक विपत्तिओं से भी और जन्म-मृत्यु-कर्म-ऋणानुबंध से भी! इसलिए तारा के हाथों में कैंची होती है। वो सच्चे साधक के बंधनों को काटने के लिए ही प्रकट होती हैं।
तारा को ब्रह्मविद्या भी कहते हैं। ब्रह्मविद्या यानी आत्म-ज्ञान। तारा की कृपा प्राप्त साधक की गति ही मोक्ष है! भगवती तारा की ऊर्जा आत्मसात करते ही साधक वाक्-सिद्ध हो जाता है। उसका कहा हर एक शब्द अक्षर-अक्षर देवी सत्य कर देती है।
ऐसा साधक जब तक जीता है वो जीवनमुक्त होता है। बंधनों के कटने का अर्थ तंत्र मार्ग पर यह नहीं कि आप सबको और सबकुछ छोड़ देते हैं! तंत्र भोग-मोक्ष का मार्ग है। तंत्र छोड़ने पर नहीं बल्कि पूर्ण रूप से अपनाने पर ज़ोर देता है। तो अगर आपकी प्रवृत्ति त्याग की है तो योग का मार्ग चुने। तंत्र त्यागियों के लिए नहीं है। वस्तुओं और मनुष्यों को त्यागने से कई ज़्यादा श्रेयस्कर है कि उनके प्रति आसक्ति को त्यागी जाए। आसक्ति के अभाव में सिर्फ प्रेम होगा। प्रेम साक्षात महादेवी है!
तारा सिद्ध साधक बिना शास्त्र पढ़े ही सारे शास्त्रों का निचोड़ जानने में समर्थ हो जाता है। तारा सिद्धि के प्रथम लक्षणों में काव्य रचने की महारत शामिल होती है। ऐसे साधक के बोल मोती-से झरते हैं। वाणी में माई-सी मधुरता आ जाती है।
कुण्डलिनी योग में सबसे मुश्किल से जागृत होने वाला विशुद्धि चक्र स्वतः ही साधक के पूर्ण नियंत्रण में आ जाता है।
जब-जब साधक की करुणा विश्व-कल्याण के भाव से अपनी पराकाष्ठा पार कर जायेगी, तब-तब भगवती आदि-पराशक्ति तारा स्वरुप में प्रकट हो साधक को शिव बना जायेगी!
ऐं ह्रीं श्रीं ॐ ह्रीं स्त्रीं हुं फट्!
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