माँ : आज सुबह-सुबह उठ गयी?
मैं : हाँ, माँ। आज 25 मार्च है।
माँ : आज तीन साल पूरे हुए स्वामीजी के साथ तुम्हारे।
(मेरे नींद से सने चेहरे पर एक हलकी मुस्कराहट अचानक ही उभर आयी। गुरुदेव से कभी मिलने का सौभाग्य प्राप्त नहीं हुआ अब तक पर मेरी हर सांस में उन्ही की मोहब्बत समायी हुई है। मेरा हर कार्य, हर सोच, हर एक भावना इन तीन सालो में उन्ही को समर्पित रही। उनके अथाह प्रेम ने निर्भीक बना के ही छोड़ा! डर की आँखों में सीधे देखने का सामर्थ्य इसी से आया मुझमे कि मेरे सर पर हाथ उनका है जिन्होंने अपने तेज के एकमात्र अंश में पूरा ब्रम्हांड धारण किआ हुआ है। अगर इस सत्य को जानने के बाद भी समाज या ज़िन्दगी से डरु, तो मेरी भक्ति प्रेम नहीं, ढोंग हुई फिर!)
माँ : खो गयी फिर गुरुदेव के ख्याल में ? (मुस्कुराती हुई) कहानी सुनोगी?
(महामाई फिर महासरस्वती के रूप में मेरी गर्भधारिणी माँ के मुख से निकलने को आतुर थी। मैंने खुद को प्रस्तुत किया आने वाले ज्ञान के लिए।)
मैं : बिलकुल।
माँ ने सुनाना शुरू किया –
“एक छोटा बच्चा था। नाम था चमकू। चमकू रोज़ जंगल के रास्ते पाठशाला जाता था। जंगल था एकदम सुनसान-वीरान। चमकू को लगे बेहद डर।
चमकू रात में अपनी माँ के पास बैठकर बोला, “माँ, सबके मित्र हैं , सब एकसाथ जाते हैं। मेरा कोई मित्र नहीं, माँ। मैं अकेला हूँ। जंगल मुझे डराता है। वहाँ की नीरवता किसी राक्षस से कम नहीं। मेरा कोई क्यों नहीं है, माँ?”
कहकर चमकू फूट-फूट के रो पड़ा।
माँ चमकू को गोद में लेकर बोली, “किसने कहा कि मेरा बेटा अकेला है! मेरे चमकू के बड़े भइया है तो साथ।”
चमकू चौंककर बोला, “मेरे भइया? कौन माँ?”
माँ ने हसकर कहा, “हाँ, तुम्हारे भइया।”
चमकू को विश्वास ही नहीं हो रहा था। यह अचानक कौन से भइया आ गए। पहले तो कभी नहीं सुना इनके बारे में। विस्मय और ख़ुशी के मिश्रित आवाज़ में उसने पूछा, “उनका नाम क्या है, माँ?”
माँ कुछ देर शांत रही फिर बोली, “मधुसूदन।”
चमकू की आँखों में ख़ुशी की लहर दौड़ गयी। आज पहली बार उस मासूम को लगा की शायद वह अकेला नहीं है। उसके पास भी है कोई। उसके मधुसूदन भइया!
माँ ने प्यार से दुलारते हुए कहा, “बेटा, जब भी डर लगे तो अपने मधुसूदन भइया को पुकारना।”
चमकू ख़ुशी-ख़ुशी सो गया।
सुबह उठकर जंगल के रास्ते पाठशाला की और जाने लगा। बीच जंगल में पहुंचकर उसको बहुत डर लगा मानो चारो तरफ फैली खामोशी उसको निगल ही जायेगी।
तभी उसके मुँह से निकल पड़ा, “मधुसूदन भइया!”
“भइया, आओ ना, माँ बोली थी तुम आओगे पुकारने पर।” कहकर वो बिलख-बिलखकर रोने लगा।जंगल की नीरवता में बासुरी की धुन फूट पड़ी। निश्छल मन की पुकार परमपुरुष के ह्रदय को भेद गयी। जंगल के बीच नीली आभा धारण किये एक ग्वालें, सर पर मोर-पंख और बांसुरी हाथो में लिए चमकू के पीछे आकर खड़े हो गयें।
“चमकू, मैं हूँ यहां।”चमकू पीछे मुड़ा और उनसे लिपटकर रोने लगा। ना उसका ध्यान उनके नीले आभामंडल पर गया न ही उनसे निकलते असंख्य सूर्यों के तेज पर। उसके लिए तो सामने उसके मधुसूदन भइया थे जो उसको डर से बचाने आये थे।
शांत होने तक वो उनसे लिपटा ही रहा। फिर हक़ से बोला, “इतनी देर कौन करता आने में, भइया?”
सातों भुवनो को मोहित कर देने वाली एक मुस्कान उनके होंठों पर आ गयी।
उन्होनें कहा, “इस बार के लिए माफ़ कर दो अपने भइया को। लो कान पकड़ता हूँ।” कहकर दहलिये की पंखुरियों के सामान अपनी उंगलयों से अपने कान पकड़ लियें।चमकू खिलखिलाके बोला, “कोई बात नहीं, भइया। अब आप आ गए हैं तो मेरा हाथ पकड़ लीजिये। छोड़िएगा नहीं।”
वह फिर मुस्कुराएं और बोलें, “मैं कभी किसी का हाथ तब तक नहीं छोड़ता जबतक वह स्वयं मेरा हाथ ना छोड़ दे। जबतक किसी का मन निश्छल है, मैं उससे दूर नहीं हो सकता।”
चमकू को ज़्यादा कुछ समझ ना आया सिवाय इसके कि भइया उसका हाथ नहीं छोड़ेंगे।
मधुसूदन भइया का हाथ थामकर वह जंगल के छोर तक पहुंच गया।
“जब शाम को लौटोगे तो जंगल में फिर पुकारना। मैं आऊंगा।” कहकर मधुसूदन भइया ने चमकू का माथा चूम लिया और उसको पाठशाला की तरफ बढ़ा दिया।चमकू को 2-4 सेकंड चलने के बाद लगा कि मधुसूदन भइया को मास्टर जी से मिला दे एकबार। आज वो अकेला नहीं था। उसके पास कोई था जिसको वो अपना कह सके। जो उसका हाथ नहीं छोड़ेंगे। वह यह बात भइया से कहने को पीछे मुड़ा ही था कि दूर-दूर तक कोई नहीं दिखा उसको। बस चारो तरफ बिछा घना जंगल और जंगल में पसरी नीरवता।”
मैं (कौतुहल से) : नारायण ही थे न या उसका imagination था?
माँ (मस्तीभरी नज़रों से देखते हुए) : क्या पता, imagination हो भी सकता है।
मैं : नहीं, माँ, नारायण ही होंगे। गुरुदेव कहते हैं कि श्री हरि अर्थात जो दूसरो को आश्रय दे पाने की क्षमता रखते हैं और उनके डर, कुंठा, अहंकार, दुःख आदि को हर लेते हैं। इतने निश्छल मन से बच्चे ने बुलाया। आश्रय देना तो श्री हरि की प्रकृति ही है!
माँ (पहले गंभीर हुई फिर दूर अनंत में झांकते हुए): पहली बात तो तुम्हें सहजता से समझ आ गयी। दूसरी बात क्या समझ में आयी इस कहानी से?”
(मैं सोच में पड़ गयी। प्रत्यक्ष रूप से तो यही एक बात थी कि निश्छल मन से पुकारने पर श्री हरि अवश्य आश्रय देते हैं। दूसरी बात क्या थी?)
मैं: आप बताइये।
माँ : आश्रय देना, रक्षा करना और व्यथा हर लेना तीनो ही ईश्वर की प्रकृति है। भक्ति का अर्थ ही है कि वही करना जो इष्ट को प्रिय है। Logically, जो उनको प्रिय है वह खुद भी वही आचरण का अनुसरण करेंगे ना? यही सच्ची पूजा है कि जो इष्ट का स्वभाव है उसको धारण कर लिया जाए।
आश्रय केवल ईश्वर ही दे सकते हैं पर हमसे जितना हो पाए उस हद्द तक अपने कर्त्तव्य का पालन अनिवार्य है भक्ति के लिए। अगर कोई भी तुमसे आश्रय मांगता है तो ज़िन्दगी देकर भी उसकी रक्षा करना धर्म है तुम्हारा। जो तुमको पुकार रहा है, तुमसे आश्रय मांग रहा है, ईश्वर तुम्हारे माध्यम से स्वयं ही उसके आश्रय बनेंगे। जो तुमसे प्रेम करता हो उसका किसी भी हाल में तिरस्कार नहीं करना। कभी किसी का परित्याग नहीं करना। अपने वचन को हर कीमत पर निभाना। तुम जीव के लिए शिव-समान बनो तो शिव स्वतः ही तुम्हारी हर पूजा हर साधना हर भाव को स्वीकार कर लेंगे।
माँ की बात सुनकर गुरुदेव के जीवन की एक घटना (A Bird in Hand) याद आ गयी जो Book of Faith में दी हुई है। सही बात है, स्वामीजी ने खुद भी तो कभी किसी का तिरस्कार नहीं किया! शयद इसलिए नारायण और माँ हर वक़्त उनके पास और उनके भीतर रहते हैं। एक गहरी सांस छोड़ उगते सूरज को देखते हुए अभी-अभी प्राप्त इस ज्ञान को मैं आत्मसात करने में लग गयी।
Picture from Book of Faith (A Bird in Hand)
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