भाग 1
एक समय की बात है, ‘मेंढककाणिपुर’ नामक एक गाँव के मठ में एक युवक दीक्षा प्राप्त करने के लिए आया था। लेकिन किस्मत का मारा ऐसा था कि आश्रम का कोई भी गुरु उसको शिष्य के रूप में नहीं अपना रहा था। उस युवक का नाम भोलू था। भोलू कद से लम्बा, रंग रूप में सुंदर और हंसमुख रहता था। भोलू अपने नाम की तरह भोला ही था। 

जिस मठ में भोलू रहता था, आस पास एक बहुत सुंदर झील थी। आश्रम इतना भव्य था, ऐसी कारीगरी जो आपने  स्वप्न में ही देखा होगा। मठ की हर दीवार कहानियों का भंडार था। उस मठ का रक्षक एक दिव्य मेंढक था। 

उस गाँव की कहानी कुछ ऐसी थी, की एक बार, विदेश की एक सेना ने लोभ में आकर मठ पर हमला करना चाहा। वहाँ के निवासी प्रकृति प्रेमी थे। ऐसा दृश्य, ऐसी पवित्रता, पेड़-पौधों और जीव जंतुओं के लिए ऐसा आदर कहीं ना देखा हो।मानो जैसे हर ऋतु में प्रकृति कभी दुल्हन के रूप में या कभी सरस्वती माँ की तरह सफेद सारी ओरी हुई या कभी स्वर्ग की अप्सराओं जैसी चंचल ज्ञात परती। प्रकृति वहाँ के निवासियों से इतना प्रसन्न थी की उन्होंने वहाँ ही अपना वास बना लिया। अब मेंढककाणिपुर के वासी ठहरे अहिमसवादी, आक्रमण से कैसे बच सकते थे?

विदेशी सेना ने इतना उत्पात मचा रखा था, झील की मीठी पानी को दूषित किया, वन उपवन उजारने लगे, निर्दोष गांव वालों को मारने लगे। ऐसा आघात पहुंचाया प्रकृति को, की पूछो मत। तभी माँ प्रकृति ने सेवक के रूप में एक मेंढक की रचना की। मेंढक इतना विशाल की शेर भाग जाए। तभी दिव्य मेंढक ने अपनी कर्कश आवाज़ से जंगल के सभी मेंढकों को बुलाया। जब भी कोई विदेशी सैनिक पानी पिता तो एक मेंढक उसमें छलांग मारकर उस पानी को पीने अयोग्य बना देता। जब वे खाते तो वही प्रकरण होता था। जब वे सोते तो उनके बिस्तर पर हज़्ज़ारों की तादाद में वही डेरा मारे बैठ जाते थे। एक के बाद एक सैनिक बीमार पड़ने लगे। जब वे निर्दोष गांव वालों के मुँह से पानी छींते तो मेंढक उनके मुख पर टूट पड़ते। ऐसा करते करते वहाँ से सभी सैनिक भाग गए। बिना हिंसा किए बिना, माँ प्रकृत्ति ने मेंढककाणिपुर की भूमि को अशुध होने से बचा लिया।तभी से दिव्य मेंढक मेंढककाणिपुर के रक्षक के रूप में वहाँ स्थापित है। 

♥ जय श्री हरी।♥