मानव जीवन कितना चंचल, प्रेम-प्रेम मे फंसता है
फिर प्रेम की जंजीरों में, कितना तू तड़पता है
मानव जीवन कितना……..
कदम कदम पर दोखे खाकर, उसी प्रेम मे मरता है
आज के इस कलयुग का मानव, गिरगिट रंग बदलता है
मानव जीवन कितना……..
जीत-हार के भय मे रहकर, कितना विचलित चलता है
धर्म-कर्म मे फंसकर मानव, अर्जुन जैसे जलता है
मानव जीवन कितना……..
प्रेम सुधा का प्यासा होकर, कितने मार्ग बदलता है
धरती पर रहकर भी यह तो, स्वर्ग के सपने बुनता है
मानव जीवन कितना……..
सौम्य इस जीवन को छोड़कर, असत्य प्रेम में मरता है
मानव जीवन कितना चंचल, प्रेम-प्रेम में फंसता है
धर्म सुधा को तू भूल कर विष को पान करता है
मानव जीवन कितना चंचल प्रेम प्रेम मे फंसता है
प्रेम और चाहत की राह में कितने भेष बदलता है मानव जीवन कितना चंचल प्रेम प्रेम में फंसता है…
श्री राधे
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