तभी प्रसन्नता से शंख ने घोषणा यंत्र हाथ में लेकर, महादेव और माँ जगदंबा का धन्यावाद किया, जिन्होंने अपनी प्रजा पर इतनी कृपा की। और साथ ही में देवी वामकेशी का भी धन्यावाद करते हुए कहा, “हम सभी देवी वामकेशी को कोटि कोटि आभार प्रकट करते है । हम चिंतामणि गृह निवासी आपको आतिथ्य अर्पित करके अति धन्य हुए क्यों की आप ही की इच्छा, हम सब पर कृपा का कारण बनी। जो दिव्य कला आज तक केवल माँ जगदंबा और महादेव के एकांत तक सीमित थी। आप ही के कारण उसी कला का हमें दिव्य साक्षात्कार हुआ। आशीर्वाद दीजिए कि आपको आतिथ्य अर्पित करने का अवसर हमें बार बार प्राप्त हो!”
शंख की बात सुन कर, महादेव के मुखारविंद पर एक बड़ी मुस्कुराहट आ गयी। उन्हें लगा उनका काम सरल हो गया लेकिन देवी वामकेशी के मुख पर कुछ अप्रसन्नता के भाव व्यक्त हो गए। उन्हें स्वयं के लिए ‘अतिथि’ शब्द अच्छा नही लगा। वे चुपचाप अपनी महल की ओर प्रस्थान कर गयी। आज वह महादेव और माँ जगदंबा के साथ वापिस नही गयी। और ना ही रास्ते में उन्होंने अपनी सखियों से कोई आज के कार्यक्रम के बारे में कुछ बात की।
सारी रात वह खुद से बातें कर रहीं थीं, “मैं अतिथि कैसे हो सकतीं हुँ? अगर अतिथि हुँ तो इसका अर्थ मुझे चिंतामणि गृह से जाना होगा। अभी अभी तो मुझे मेरा अतुलनीय अस्तित्व प्राप्त हुआ है और अभी ही मै विलीन हो जायुँ। क्यों?” “और अगर अभी विलीन हो गयी तो महादेव के दिव्य सान्निध्य का आनंद भी समाप्त हो जाएगा। और यह मेरा सारा दिव्य स्वरूप, आनंद, ऐश्वर्य, वैभव, सुख और सम्मान भी विलीन हो जाएगा।” “मैं भी तो माँ जगदंबा की अंश हुँ तो मैं विलीन कैसे हो सकती हुँ? मुझ में भी उतनी ही शक्ति और सामर्थ्य है जितना कि माँ जगदंबा में। यह मेरी विनम्रता है कि आज तक मैंने, माँ के साथ अपनी तुलना कभी नही की। उनसे मैं किसी भी स्तर में कम नही हुँ। और अगर मेरा अवतरण हुआ है तो इसका भी कोई कारण होगा। ऐसे यह जीवन क्षण में विलीन नही हो सकता। अब मैं, माँ जगदंबा की दूसरी छवि बन कर ही रहूँगी।” “और इस से पहले माँ पार्वती कोई आपत्ति प्रकट करें, मैं महादेव से ही प्रार्थना कर लूँगी। मेरी प्रत्येक इच्छा को एक क्षण में वो प्रसन्नता से पूर्ण करते है। मुझे अस्तित्व में रखना, उनके लिए कोई मुश्किल कार्य नही है। बल्कि प्रसन्न होकर वे अपनी सेवा से मुझे अरोत-प्रोत कर देंगे। कोई ज़रूरी नही कि किसी भी देवी या देवता के अवतरण का कोई विशेष कारण ही हो। कभी इस संसार में केवल सुखों के भोग के लिए भी आया जा सकता है। केवल महादेव ही माँ जगदंबा के अकल्पित अस्तित्व में मेरी विलीनता को निष्क्रिय कर सकते है।”
इस प्रकार अपने आप से मन में बातें करती हुई और तरह तरह के आधारहीन विचारों में डूबी, देवी वामकेशी ने अपनी रात व्यतीत की। भोर होने पर भी वह अपने समय पर उठ नही पायी क्यों कि उन्हें एक अनजाना सा डर लग रहा था और वह बहुत ही उदास थी। उस दिन वे अपने कक्ष से भी बाहर नही आयी और ना ही किसी सखी या सेविका को अपनी सेवा और दर्शन दिए। दिन भर अन्न-जल भी ग्रहण नही किया। बस अपनी शैय्या पर औंधे मुख लेटी रही।
यह उनके जीवन में दुःख का पहला परिचय था, जो कि बहुत ही कष्टदायक था। उन्हें पता ही नही था कि ऐसी परिस्तिथि को कैसे सम्भालते है? जिस प्रकार सुखों और सम्मान का परिचय विशिष्ट था, उसी प्रकार इस दुःख का परिचय भी अति उदास करने वाला था। इसी को तो ईश्वर की माया कहते है। जो कि हर किसी को अपनी चपेट में इस प्रकार फँसाती है कि हर कोई भूल जाता है कि वास्तविकता क्या है? सबसे पहले माया जीवन में अच्छा परिवर्तन लाती है और सभी सुखों-सम्मान से परिचय होता है। फिर जब इन्हीं सभी चीजों से मोह और आसक्ति हो जाती है। अगर अंकुश नही लगाया जाता तो मन में प्रतिदिन नयी इच्छाएँ उत्पन्न होती है। अगर इच्छा पूर्ण ना हो तो सबसे पहले मनोदशा बदलती है। और अंत में इच्छायों को पूर्ण करने में और सर्वाधिक सुखों को प्राप्त करने की लालसा में, मनुष्य सब कुछ भूल कर माया चक्र में फँस जाता है। विडम्बना यह थी कि माँ जगदंबा की अंश होने के बावजूद भी, देवी वामकेशी स्वयं को ईश्वर के इस माया चक्र के प्रभाव से बचा नही पा रही थी। ‘अतिथि’ शब्द ने उनके मन में ऐसा उद्वेग उत्पन्न किया कि वो वास्तविक सत्य को भूल ही गयी।
देवी वामकेशी जानतीं थी कि वे माँ की ही अंश थी लेकिन उनके मन में असुरक्षा की भावना इतनी बढ़ गयी थी कि वो मन ही मन माँ जगदंबा को ही अपना शत्रु मान रही थी। ताकि वे कहीं माँ में विलीन ना हो जाए। उनकी एक आशा केवल महादेव पर टिकी थी। और इसके लिए महादेव को प्रसन्न करना बहुत ही आवश्यक था क्यों कि प्रार्थना, प्रकृति के चलन को बदलने की थी। उन्होंने सोचा ‘सबसे पहले तो महादेव की कोई सेवा हाथ में लेनी होगी, जिस से महादेव से एक व्यक्तिगत सम्पर्क रहेगा और प्रार्थना करने में सुगमता होगी। क्यों ना माँ से बात करने की बजाए, महादेव से सीधे ही उनकी सेवा माँग ली जाए।’
ऐसा सोच कर देवी वामकेशी, रात्रि भोज में सम्मलित हुई। संयोग से आज रसोई घर में उतनी चहल-पहल नही थी। देवी वामकेशी ने भोजन भी नाम मात्र का किया और यही देखने में समय निकल रहा था कि कब अवसर प्राप्त हो और महादेव से बात की जाए।
“महादेव, मैं जब से आयी हुँ तब से इस समाज में रहना सीख ही रही हुँ या मेरा स्वयं पर ध्यान केंद्रित है। यहाँ हर कोई आपकी दी हुई सेवा में व्यस्त है। आप से प्रार्थना थी कि अगर आपकी कोई सेवा का अवसर प्राप्त हो जाता तो आपकी बड़ी कृपा होती। अब मै स्वयं पर नही, आपकी सेवा पर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहती हुँ।”
“आप हमारी अतिथि है। और जो भी आप कर रही है, एक अतिथि का वही धर्म होता है।” महादेव ने बिना सिर उठाए जल पीने से पहले उत्तर दिया।
देवी वामकेशी को महादेव के मुख से अपने लिए अतिथि शब्द सुन कर फिर से गहरा आघात पहुँचा। लेकिन फिर भी उन्होंने कहा,”नही महादेव, मैं अतिथि नही, घर की सदस्य बन कर रहना चाहती हुँ।”
“अवश्य देवी, समय आने पर आप से आपकी मुख्य सेवा ज़रूर ली जाएगी। परंतु अगर फिर भी आपका मन है तो आप अपनी माता पार्वती से प्रार्थना कर सकती है।” महादेव ने माँ जगदंबा की ओर मुस्कुराते हुए कहा
पास में बैठी माँ जगदंबा सारी बात मौन होकर सुन रहीं थी और हैरान होकर देख रहीं थीं। आज देवी वामकेशी का व्यवहार और शब्द उन्हें थोड़ा अजीब लग रहे थे।
To be continued…
सर्व-मंगल-मांगल्ये शिवे सर्वार्थ-साधिके।
शरण्ये त्र्यंबके गौरी नारायणि नमोस्तुते ।।
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