सादर नमस्कार।
आमतौर पर हमारे जीवन को आसान कर देने वाली ऐसी तमाम चीजों के प्रति हमारा रवैया केवल उपभोग का है, यही कारण है कि प्रेम को हमें फिल्मों, शायरियों और कविताओं में खोजना पड़ता है कि कहीं से एक चिंगारी मिल जाए और हृदय में फिर से प्रेम की अग्नि प्रज्वलित हो जाए।
प्रस्तुत की जा रही कविता जुलाई 2021 के आखिरी सप्ताह में लिखी गई, जब अपने घर को देखते हुए ओर मेरे मन ने इसकी संरचना का विचार करते-करते, इसके साथ एक एकत्व का भाव, प्रेम का संबंध अनुभव किया। कविता की ओर-
मुझे मेरा ही घर अजीब लगा
मुझे मेरा ही घर अजीब लगा
जब मैंने वह ईंट देखी,
उससे जुड़ी दूसरी, और फिर,
कई उनकी कतारें देखीं
बनती उनका जोड़ दीवार देखी
आसरा देती छत और उसकी,
लगती बाजु से दीवार देखी
चार दीवारों का कुल योग
एक कमरा देखा
उसमें लगी देखी खिड़की जो
दृश्य बाहर के दिखाती रही
‘वह आ रहा है, वह कुछ ला रहा है
अपने थैले में यह बताती रही।’
मुझे मेरा ही घर अजीब लगा।
फिर जब मैंने आँगन देखा,
एक खाली जगह देखी
जिसे अब तक आंगन कहा
उससे लगा दरवाजा देखा
एक ओर ही जो खुलता और बंद होता
सीढ़ियाँ देखीं, गिनती जिनकी
कुल तेरह है, आज जाना
कपाट हृदय के बंद रख देखता रहा
अब तक घर अपना आज माना
वहाँ रखी है जो मेज, देखी
सहारे से जिसके गीत लिखे,
कलम देखी वह जिसने कसम दी
जीवन समर में तेरी जीत दिखे।
मुझे मेरा ही अंतस निर्जीव लगा।
मुझे मेरा ही घर अजीव लगा।
-अमित
प्रकृति के हर मौसम में सहारा देने वाला हमारा घर केवल ईंट-पत्थरों का समूह भर नहीं है। बल्कि हमारी भावनाओं व ऊर्जाओं से निर्मित एक ऐसा संगठन है, जो केवल हम तक ही सीमित नहीं है।
मैं जानता हूँ कि आप सभी के कमेंट मेरे लिये बहुत प्रेरणा के स्रोत होंगे, उन सुझावों व प्रशंसाओं को, मैं भी पढ़ना और उनका उत्तर देना चाहता हूँ, किंतु फिलहाल मैं इसमें असमर्थ हूँ। मुझे क्षमा करें।
आदरणीय सज्जनों को सप्रेम नमन।
Comments & Discussion
8 COMMENTS
Please login to read members' comments and participate in the discussion.