मैं जिस गली में चल रहा हूं, ग़जब की ख़ामोशी है यहां। इस गली में अजीब ख़ुश्क एहसास हो रहा मन को, मेरे पदचाप से उठा नाद बेवा हुई इन गलियों में शहनाई जैसे बज उठा। जगह-जगह यादों के बिखरे पड़े ढेर हैं, जिनके ऊपर कुछ नन्ही हसीन यादें क्रीड़ा कर रही हैं मुझे देख के वो शांत हो जाती है, मुझे देखते हुए शायद आपस मे कह रहीं हो कि, इंसान तो जान-पहचान का लगता है, “कहां था इतने दिन तक?”
मैं गली में आगे बढ़ता गया ,कई कोठिया हैं यहां जिन पर लंबी-लंबी झुमरें छज्जे से मुझे घूर रहीं है | नही, शायद मुझे उलाहना दे रही हैं….पता नही। इन झूमरों में चमक तो है चमक भी ऐसे के गली में जाने वाला बिना देखे न रह पाए, किन्तु कितना अजीब है, इनमे ख़ुशमिजाजी बिल्कुल नही ये चमक तो रहीं पर खराब तबियत से, इनकी ये दशा देख के मैं कुछ क्षण यहां रुक गया। कुछ देर तक इन्हें देखता रहा, धीरे-धीरे इनका सुनहरा रंग उड़ने लगा, दमकते सितारों की लड़ियों की जगह सुखी जीर्ण हड्डियां उभर कर आने लगीं अरे! ये क्या ,ये तो किसी मृत जानवर की लटकी देह है। कितना वीभत्स है ये दृश्य, कैसी अजीब दुर्गन्ध है यहाँ।
मैं तुरंत उठ के चल दिया वहाँ से, चौराहे की ओर बढ़ते हुए सन्नाटा मेरे साथ हो लिया, उसने मुझसे कहा,
“कहो भाई ,कहां थे इतने दिन? देखो तो ल कितना बदरंग हो गया है ये मोहल्ला। पहले तो मैं रात को ही आता था बस्ती में, पास में ही मीठी याद का घर था उसके घर में ही रौनक नजर आती थी, पता नही किस तूफान में वो घरौंदा भी ढह गया। अब तो पूरी बस्ती में मेरी ही हुकूमत चलती है, सारी गलियां, सारा मोहल्ला मेरा राजदरबार और चौराहा मेरा तख़्त। दिन हो या रात अब केवल सन्नाटे की हुकूमत चलती है।”
मैंने कहा, “अरे ओ उजड़ी रियासत के सुल्तान, शर्म करो…किसी के ढहे घरौंदे पे अपना किला गढ़ते हो और फिर बेशर्मी से अपनी फ़ैली रियासत का दम्भ भी भरते हो, लानत है…।”
मैं सन्नाटे को छोड़ कर आगे चौराहे की ओर बढ़ता गया। यहां ऐसी कितनी ही ख़ूबसूरत एहसासों की विधवा गलियां है जो किसी न किसी तूफान के तबाही की कहानी बयां करती हैं। कितनी ही यादों की छोटी गलियां हैं जिन्हें वक़्त के सैलाब ने निगल लिया। बेवा हुई इन सूनी गलियों में अब सन्नाटे की ही हुक़ूमत है। अफ़सोस!
पूरे चांद की रात हो या स्याह काली रात ये गलियां चीखती हैं। सन्नाटा चौराहे पर सिंहासनारूढ़ हो इन गलियों से मारवा, मातम के गीत सुनता है।
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