मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वरः।।3.30।।

जय श्री हरि,

श्री भगवत गीता एक ऐसा उपनिषद है जिसमे कर्म की अत्यंत महिमा गाई है । यह संसार कर्म भूमि है और मनुष्य योनि कर्म योनि है अत: कोई भी मनुष्य कर्मो के बिना नहीं रह सकता । जो दायित्व उस इश्वर ने हम सब को दिए है उन्हें भलिभांति निभाना हम सब का परम कर्तव्य है । तो इन कर्मो को कैसे इस संसार में रह कर करे कि यह मुक्ति का द्वार बन जाए और अपने दायित्व से भी न च्युत हो पाए । श्री भगवत गीता के अद्धयाय ३ में आया यह श्लोक मुझे अत्यंत प्रिय है, आज इच्छा जागृत हुई की इस श्लोक के बारे में कुछ यहाँ पर लिखा जाए । अर्जुन युद्ध रूपी कर्तव्य कर्म से भागना चाहते थे तो भगवन उनको  कर्तव्य कर्मो को करने की आज्ञा देते हुए इस श्लोक में बहुत ही  सुंदर तरीके से कर्तव्य कर्मो को करने का मार्ग बता रहे है । तो आएये थोडा प्रयास करते है इस श्लोक की गहराई मापने का ।

कर्म मनुष्यों को बांधते है परन्तु अगर  यही कर्म अगर निष्काम भाव से दुसरो के लिए किये जाए तो यही कर्म मोक्ष परायण भी बन सकते है । मनुष्य अक्सर जब कर्मो या सांसारिक पदार्थो से अपनी आसक्ति रखता है तो कर्मो से बंध जाता है । आसक्ति रखने से उन भोगों की कामना पैदा होती है, कामना से क्रोध और क्रोध से बुद्धि नष्ट हो जाती है है । इसलिए भगवन इस शलोक में कह रहे है की हे अर्जुन ” तु विवेक बुद्धि से सम्पूर्ण कर्मो को मेरे अर्पण कर और कामना रहित, ममता रहित और संताप रहित होकर युद्ध कर । “

यहाँ दो बातो की बारीकी में सीखना है एक कर्मो को इश्वर को अर्पण करना है और दूसरा कैसे अर्पण करना है ।

कर्मो को इश्वर को अर्पण करना : 

विवेक बुद्धि से यह संकल्प लेना की मेरे द्वारा सब कार्य केवल इश्वर के लिए ही हो रहे है, जो कर्तव्य कर्म सामने आये वो केवल उस इश्वर की सेवा का ही रूप है । यह समस्त संसार उस इश्वर का ही है इसलिए सम्पूर्ण प्राणी उस इश्वर की ही संतान हुई तो चाहे घर में हो या ऑफिस में हो या किसी सेवा स्थल पर हो, हर कार्य केवल उस इश्वर के लिए ।

मेरा मुझ में कुछ नहीं जो कुछ है सो तोहे, तेरा तुझको सौंप के,  क्या लागत है मोहे । । “

बिना आशा के, बिना ममता के और बिना संताप के :

अब यहाँ भगवन इन कर्मो को  बिना किसी आशा, ममता और संताप के करने का मार्ग बतला रहे है । देखिये जब कोई वस्तु प्राप्त न हो तो तब तक उसकी आशा रहती है और मिल जाए तो उसकी ममता शुरू हो जाती है और जब वेह वस्तु छूट जाए तो उसका संताप हो जाता है । अत: भगवान past, present और future तीनो में आसक्ति का त्याग बतला रहे है । जो चला गया उसका संताप नहीं, जो अभी मिला हुआ है उसके लिए  ममता नहीं और जो नहीं मिला उसकी आशा नहीं ।  यही कर्मो से निर्लिप्त होने की गहन विधि है ।

इसलिए आईये अपने सब कर्मो को उस इश्वर के परायण करके भक्ति भाव और सेवा भाव से संसार के कर्तव्य कर्मो को करके उस इश्वर की प्राप्ति करने का प्रयास करें ।

जय श्री हरि !