शरारती सोलह की उम्र में हर किशोर की तरह मुझमे भी प्रेम विद्युत का प्रवाह हुआ, मैं भी टेस्टोस्टेरोन और हिंदी की सृंगार कविताओं के पाश में बंध गया था, पहली बार अब तक के जीवन मे कुछ ऐसा हो रहा था जिसका अनुभव और अभिव्यक्ति शब्दों में करना मुश्किल था, कोई था जिसकी मुस्कान देख  दिन के दिन एक मधुर एहसास में बीतने लगे , अभी तक खेलने और घूमने में जो मजा आता था वो अब खेल में न रहा , न ही मूवी और किसी भी बात में मन लगता , बस उसकी निश्छल हंसी और उसकी बातों में दुनिया के सारे सुख दिखते थे। अब तक जो सुख फिल्मी गानों में आता वो जा चुका था,मन अब गंभीर और गहरे रागों में दिलचस्पी लेने लगा  ,दरबारी ,बसंत और पहाड़ी की धुनें हृदय की घाटियों में फूल खिलाने लगीं ,ये कैसा परिवर्तन है ? ये क्या है? क्यों है? ये एहसास इतना माधुर्यपूर्ण है, क्या है इसका स्रोत?  

उम्र के इस पड़ाव में हर कोई इस परिस्थित से गुजरता है, पर हर कोई इतना भाग्यशाली नहीं होता जो भाव चाशनी के इस मिष्ठान का शेष उम्र भर आस्वादन ले सके ,सच कहें तो कोई ऐसा हुआ ही नहीँ और न ही हो सकता, इसके पीछे का कारण है। चांदनी रात्रि में ज़िंदगी जितने मधुर स्वप्न हमारी झोली में डाल जाती है ,पौ फटते ही उनको छीनने में रत्ती भर भी देर नहीँ करती, फुलवारी में खिले फूल बहुत आकर्षक होते हैं लेकिन शाखों से अलग होने के बाद उनका लावण्य गायब हो जाता है वो बस मुरझाने की यात्रा में अग्रसर हो जाते हैं ,फिर किसी गली कूचे में मसले और सूखे पड़े उनका अंत हो जाता है। ऐसे ही मेरी ज़िंदगी मे कई पड़ाव आये जिनका प्रभाव अमिट रहेगा, रिश्तों को निभाने में मैं असफल रहा इसका क्या कारण है? मुझे भी नहीं पता! मैंने बहुत चिंतन किया और इस नतीज़े पे आया कि, जिन-जिन के साथ मैंने भावनात्मक संबंध रखें उनके साथ के पल मेरी स्मृति की डायरी में हमेशा छपे रहेंगे, किंतु मेरी चेतना और आत्म विश्लेषण के समय मेरे मन ने मुझसे ये सहस्रों बार प्रश्न किया कि ,

क्यों?

क्या मैं ज़रूरत और जीवन के बीच पुल गढ़ने में नाकाम रहा? शरीर और भावों की आवश्यकता के जुएं में मैं कुछ बेशकीमती हार गया, वो क्या है?  क्या मेरे द्वंद मेरी मौलिकता पर हावी हो गए? 

ये कुछ ऐसे प्रश्न है जो मेरी चेतना मुझ पर शूल की तरह चुभाती रही जब तक मैंने इसके कारण-करण के रहस्य से पर्दा न उठा लिया। मैं अपने पिछले ब्रेकअप के बाद से बहुत सहमा और उलझा हुआ रहा साल भर , मैं ख़ुद को माफ़ नहीं कर पाया था। और धीरे-धीरे मन मे पकी गांठे खुलना शुरू हुईं ,मन , शरीर की जरूरतें और इसकी नश्वरता का बोध होना शुरू हुआ। कई मास बीत जाने के बाद ,एक समझ का अंकुरण हुआ उनमें से

पहला, कि कुछ तो कारण हैं हमारे पूर्व जन्म की वृत्तियोँ का और उन इच्छाओं का जो शायद अधूरी रह गईं थीं । प्रकृति में डाले हर बीज का फल होता है  चाहे जो भी हो, चाहे अभी या जब  उसका अनुकूल वातावरण तैयार हो । आत्मा के साथ ये इच्छाएं चिपक कर उसके साथ यात्रा करतीं है , यात्रा के जिस पड़ाव में इन्हें अवसर दिखा वहीं इनके लक्षण प्रभावी हो जातें हैं। इसके लिए ख़ुद को दोषी मानना अपनी आत्मा को कोसना हुआ ।

 दूसरा,

जो भी कर्म हम करते हैं उसके ज़िम्मेदार केवल और केवल हम हैं ,भले वो विस्मरण या लड़कपन में किया गया हो, हमारे खाते का हिसाब हमे ही भरना है सिवाय एक स्थित में कि बहुत भाग्य से हमारे जीवन मे गुरु देव❤️ का आगमन हो और वो सारे कर्म ले सकने में सक्षम हों। 

ऐसे तैसे मन  मे ठहराव आया और अब मैं पहले से ज़्यादा अपने को स्थिर पाता हूँ  विशेषतः जब बात ऐसे संबंधों की हो। इस वर्ष के गुरु पूर्णिमा के पावन अवसर में स्वामी प्रभू ने एक बात कही ” every one is a cotraveler” इस कथन के उपरांत मेरे मन मे चल रहे मेरे भावों की स्पष्टता पर मुहर लग गयी। 

जीवन में अनित्यबोध का पुष्ट होना ही सही मायने में जीवन के नए अध्याय की शुरुआत होती है पर दुःखद ये है कि ये जागरूकता हमें अक्सर बहुत गहरी चोट खाने के बाद आती है । मुझे लगता है एक मायने में ये जागरुक जीवन के लिए बहुत छोटी कीमत है।

चलते-चलते श्री ओमप्रकाश भंडारी जी की एक  ग़ज़ल आप से साझा करूँगा इनकी हर पंक्तियों में ज़िंदगी की असल सूरत दिखती हैं।

उसके बाद क्या?

कर लूंगा जमा दौलत-ओ-ज़र उस के बाद क्या?
ले   लूँगा  शानदार  सा  घर  उस  के  बाद क्या?

(ज़र = धन-दौलत, रुपया-पैसा)

मय की तलब जो होगी तो बन जाऊँगा मैं रिन्द
कर लूंगा मयकदों का सफ़र उस के बाद क्या?

(रिन्द = शराबी)

होगा जो शौक़ हुस्न से राज़-ओ-नियाज़ का
कर  लूंगा  गेसुओं में सहर उस के बाद क्या?

(राज़-ओ-नियाज़ = राज़ की बातें, परिचय, मुलाक़ात), (गेसुओं =ज़ुल्फ़ें, बाल), (सहर = सुबह)

शे’र-ओ-सुख़न की ख़ूब सजाऊँगा महफ़िलें
दुनिया  में  होगा नाम मगर उस के बाद क्या?

(शे’र-ओ-सुख़न = काव्य, Poetry)

मौज आएगी तो सारे जहाँ की करूँगा सैर
वापस  वही  पुराना नगर उस के बाद क्या?

इक रोज़ मौत ज़ीस्त का दर खटखटाएगी 
बुझ जाएगा चराग़-ए-क़मर उस के बाद क्या?

(ज़ीस्त = जीवन), (चराग़-ए-क़मर = जीवन का चराग़)

उठी   थी   ख़ाक,   ख़ाक  से  मिल  जाएगी  वहीं
फिर उस के बाद किस को ख़बर उस के बाद क्या?

जय श्री हरि🌺🌺😊😊⚛️🕉️🙏