लज्जा
हम चार दिन से घर में बैठे थे, और पिताजी गंभीर हम पर बैठे थे। स्कूल प्रशासन ने हमें एक हफ्ते के लिये सस्पेंड कर दिया था, और स्कूल की महीने भर जितनी रक़म हमारे पिताजी से सज़ा हेतु बटोर ली थी। सच बात है, हम मन-ही-मन उबल रहे थे। एक लड़की, सिमरन के चक्कर की लड़ाई में हम घर बैठा दिए गए थे। हम उसे तो कुछ कैसे बताते ,वो तो हमारी प्रेम थी… इज्जत का सवाल था। परन्तु, हम उस एक लड़के पर उबले थे जो हमारे रस्ते आ रहा था और जिसके कारण हम सस्पेंड कर दिए गए।
एक हम थे जो रोज़ सुबह उसे उसकी कक्षा में जाके देखते और सोचते की आज नहीं तो कल इसे अपनी बात कहेंगे। और एक वो लड़का अमन, जो दिन देखे न शाम, उसके पीछे पढ़ा रहता था। हमसे रहा न गया पर स्कूल में, सिमरन के सामने थोड़े शरीफ रहते थे, इसलिए पहले कुछ बोले नहीं। पर एक दिन स्कूल ख़त्म होने के बाद हमारी और अमन की लड़ाई हो गयी। अगले दिन तक बात टीचरों तक पहुँच गयी और प्रिंसिपल ने उसे और हमें सस्पेंड कर दिया।
सस्पेंशन के आखरी दिन, वह एक बार फिर हमसे बदला लेने अपने तीन-चार मित्र संग मिला। हमारी भी लड़कों की गिरोह थी जो हम पर जी-जान देने उतारू थी। स्कूल के पास ही एक चौराहे पर, हम दोनों की फिर से मुठभेड़ हो गयी और दे –लात, दे-हाथ चलने लगे। जूनियर लड़का हमसे भिड़ता तो अंत में हश्र क्या होना था? पिछली बार की तरह न करके, इस बार हमने न आँव देखा न दाँव और उसकी जमके सुताई कर डाली पर, तब तक एक कान्स्टेबल साहब ने हमें देख लिया।
अमन चोटिल दिखा या जाने क्या दिमाग़ में था, कान्स्टेबल ने ‘तुम घर जाओ चलो’, कहके उसे तो छोड़ दिया।
हमारे और उसके मित्रों को भी ज्यादा कुछ नहीं बोले। ‘ तुम लोग क्या कर रहे हो? तुम लोग भी लड़ रहे थे? ‘नहीं कान्स्टेबल जी…’ ‘न न ये क्या लगा रखा है ? तमाशा देख रहे थे? चलो तुम लोग भी निकलो।’ सब चले गए।
पर हम को कह दिया ,’हाँ मिस्टर बहुत चर्बी चढ़ रही है। लड़कों को पीटते हो न? तुम अब थाने पर मिलो, बाकी बात वहीं करेंगे । हम राउंड लगाकर वहीं आ रहे हैं। कहीं और गए तो सीधा तुम्हारे घर पहुंचेंगे। ‘ पुलिस से ऐसा सामना पहली बार हुआ था कह लो, या हमें ये ज्ञात होना कि हमारे घर का पता, परिचय और बाइक नंबर उसके पास था, हमारी हश्र नहीं हुई की उसकी न सुनें।
थाने के बाहर जब आधा घंटा बीत गया तब कान्स्टेबल साहब अपने साथी के साथ पधारे। ‘आधे घंटे से ज़्यादा हो गया है कान्स्टेबल जी। आपने तो कहा था बस यूँ पहुँच रहे हो? ‘
‘कब से खड़े हो यहाँ?’ कान्स्टेबल ने जवाब में पूछा, और फिर मुस्की मारते हुए कहा, ‘अब हम तुम्हारे हिसाब से थोड़ी ही चलेंगे भैया। ‘
बदमाश जो हम थे ही, तो हम कह दिए , ‘ तो कान्स्टेबल जी क्या करना है बताओ ?’ कान्स्टेबल ने फिर मुस्की मारी और हमें थाने के अंदर ले गया। एक तरफ ऊँगली करते हुए बोला, ‘उधर, उस कोने में घुटने के बल बैठ जाओ और जब तक न कहें हिलना मत। ‘
हम वहीं अकेले किनारे घुटने तले बैठ गए और कान्स्टेबल अपने अभी-अभी पहुंचे साहब की खिदमत में लग गया। पुलिस साहब बाहर गाड़ी से निकला और अपने दफ्तर के अंदर चला गया और कान्स्टेबल उसके पीछे-पीछे।
कान्स्टेबल फिर बाहर आया और पास खड़ी साहब की सरकारी जीप की तरफ गया और उसका दरवाज़ा खोला, और अंदर बैठे किसी को बोला, ‘बेटा आपके पापा आपको बुला रहें हैं।’
अंदर से एक लड़की निकली जो देखा तो सिमरन थी। जैसे ही हमने उसके चेहरे को पहचाना तो हमें अपनी घुटने -तली स्थिति का एक अजीब तीव्र आभास हुआ और हमारे पैरों तले जमीन फिसल गई। वह कान्स्टेबल संग दफ़्तर की तरफ आई तो हमने अपना मुँह मोड़ लिया। पर खाली मुँह मोड़ने से क्या होता? अपने घुटनों पे खड़े, हम थे तो वहीं पर।
उसने एक पल गौर से हमारी तरफ देखा, फिर आँखें फेर लीं और दफ्तर के अंदर चली गयी। हम उसी के स्कूल के कक्षा ग्यारहवीं के छात्र हैं , यह अब उसे आभास था। ‘कहीं हमारा प्रेम अधूरा न रह जाये। …’ यह सोचते -सोचते हम लज्जा में डूब गए।
कुछ मिनट बाद कान्स्टेबल फिर बाहर आया। हमारे हाल -ढाल ने उसे इतना तो बतला दिया होगा कि हम जेब में नोटों की गड्डिआं लिए नहीं चलते। पर कान्स्टेबल तो कान्स्टेबल ठहरे। अपना ,मुँह मीठा करवाए बिना कहाँ छोड़ते। हमसे हमारे इकलौते 100 रूपये ऐंठते हुए वह बोला, ‘ चलते बनो। इस बार छोड़ दिये दे रहे हैं। आइंदा झगड़ा करते दिखे तो अंदर डाल देंगे।‘
और फिर क्यूंकि आज़ाद देश है और यहाँ बोलने के अधिकार का शोषण और पाखंड होता आया है तो उनके साथ ही खड़े दूसरे कान्स्टेबल साहब ने हमें थोड़े “बड़ों के प्रवचन ” दे दिए। और हम मन-ही-मन उसे गाली दे लिए।
‘देखो तुम स्कूल जाते हो। पढ़े-लिखे हो। इन चक्करों में काहे फंसते हो।…अपने माता-पिता का सोचा है?…’
थोड़ा यह सब सुनके, थोड़ा लज्जा लिए ,जो अब, थोड़ी ठंडी हो चुकी थी, हमने बाइक पकड़ी, रेस दी और घर को चलते बने।
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