कविता लिखना मुझे लेख लिखने अधिक सरल लगता है। क्योंकि कविता लिखते समय बस खो जाना होता है। चाँद-तारों में, बादलों में, आसमान में, वृक्षों में, जल की बूँदों में, अपने इष्ट में या अनंत में। और खो जाना एकाएक संभव नहीं होता, होता यह अनायास ही है किंतु बुद्धि के घोड़ों दौड़ाने के बाद जब कुछ हासिल नहीं होता और लगाम हृदय के पास आ जाती है।

तब हमें अहसास होता है कि विचार ही नहीं है, हृदय भी है। सोचना ही नहीं है, भावना भी है। और हम नाचने लगते हैं, ऊर्जा का प्रवाह तेजी से होने लगता है। जीवन हममें से होकर अपना मार्ग खोजता है। सब कुछ सुंदर लगने लगता है, रेंगते हुए कीटों में भी, उड़ते हुए पक्षियों में भी वही तत्व है ऐसा भास होता है। सब कुछ एक हो जाता है।

सहज ही अभिव्यक्तियाँ होने लगती हैं। उस समय यदि कागज-कलम पास हो तो काव्य झरेगा। वाद्य यंत्र पास हो तो सुरों की ऐसी झड़ी बिखरेगी कि जो सुनेगा, वाह कर उठेगा। हरी-भरी प्रकृति पास हो तो अतुलनीय अहोभाव, प्रकृति माँ के प्रति प्रकट होता है। जो हमें जन्म से मृत्यु तक एक बालक की भाँति चलाती है, पोषित करती है, आनंद देती है।

जीवन की सार्थकता उन पलों में ज्ञात होती है। उन पलों में देना, दान हो जाता है, बोलना, गान हो जाता है और झुकना भी सम्मान हो जाता है। समय का उस समय विलोप हो जाता है, क्योंकि समय की गणना करने वाले मन के विचार ही नहीं हैं तो समय का भान भी कैसे हो? अहं का लोप हो जाता है, और सर्वत्र भगवत्ता के दर्शन होते हैं। संत कबीर का यह दोहा भी वही भाव दर्शाता है।

लाली मेरे लाल की, जित देखूँ तित लाल।
लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।।

एक बूँद के सागर में डूब जाने के बाद, सागर का अस्तित्व ही बूँद का अस्तित्व हो जाता है। बूँद, सागर के साथ एकाकार हो जाती है। सीमित असीमित में विलीन हो जाता है।

सप्रेम धन्यवाद।