तकरीबन रात के सवा दस बजे होंगे कि मेरे फ़ोन की घंटी बजी। “सर आपकी लोकेशन पे आगया हुँ।”

“कहाँ ?”

“सर ये जो एम्बुलेंस खड़ी है ना नीचे, यहीं हुँ।”

एम्बुलेंस कहाँ दिख गयी उसे, गलत एड्रेस पे तो नहीं चला गया? ऐसा सोचते हुए मैं अपना zomato आर्डर लेने नीचे पहुँचा। आर्डर लेते समय मेरी दृष्टि पास खड़ी पास खड़ी एम्बुलेंस पे पड़ी। तभी अंदर रखा शव दिखाई दिया। कॉलोनी के सभी लोग घरों से बाहर खड़े चुपचाप एम्बुलेंस की तरफ देख रहे थे। खाना लेते हुए मुझे अब काफी शर्मिंदा महसूस हो रहा था तो मैं उसे नकली छुपाते हुए चल पड़ा।

अपार्टमेंट में आके अब मेरा खास खाने का मन नहीं हो रहा था। मृत शरीर को देखकर एक विचित्र सा भाव उत्पन होता है। वो भाव मृतक के परिजनों के लिए होने वाले दुख या शोक के भाव से भिन्न होता है। शायद अपनी शारीरिक नश्वरता का स्मरण (reality check) हो जाता है। साथ ही अन्दर के मद (ego) के टूटने की ध्वनि स्पष्ट सुनाई देती है। क्रोध और दुख के मिश्रण से शायद इस भावना का जन्म होता है।

दुख होना तो निश्चित है, पर मुझे लगता है कहीं ना कहीं क्रोध का भाव भी साथ जरूर होता है। क्या गौत्तम बुद्ध मूर्दे को देख दुखी होकर घर से निकल जाते हैं या क्रोधित होकर ? या अन्य कोई कोई कारण रहा होगा? मुझे लगता है वह क्रोध ही है जो कुछ करने को मजबूर करता है।

प्रसिद्ध जैन मुनि श्री तरुण सागर जी महाराज कहा करते थे कि शमशान नगर के कोने पे नहीं अपितु बीच चौराहे पे होना चाहिये।

[सबसे विचित्र मेरा यह post है, क्योंकि मुझे अपने अचार-विचारों को लिखने की आदत है नहीं। लेख लिखने की तो बिल्कुल भी नहीं!!]