बेला महका रे महका आधी रात को…..
दिल क्यों बेहका रे बहका आधी रात को.. हो किस ने बंसी बजाई आधी रात को , बेला महका रे महका…
फ़िल्म उत्सव के इस गीत के स्वर मुझे बहुत अच्छे लगे और मैं पूरे घर मे जोर-जोर से तार सप्तक के सुरो में इसे टेर रहा था। अचानक से मुंडी में एक भारी-भरकम हाथ का झटका लगा ,”इनका पूरा दिन राग अलापना है बस, जा पढ़ाई करा”
चाचा जी ने भृकुटि ऊपर चढ़ाते हुए मुझे डांटा। मेरे समझ के बाहर था कि उन्होंने डांटा क्यों? इससे पहले तो कभी किसी ने नही रोका, सब मुझसे खूब गाना गवाते थे, फिर इस गाने मे ऐसा क्या है? इसका उत्तर बहुत सालों बाद मिला जब मैंने गुप्तकालीन लेखक शूद्रक रचित मृच्छकटिकम के बारे सुना और पढ़ा, ये फ़िल्म दरसल उसी पुस्तक का नाट्य रूपांतरण थी। मैंने फ़िल्म नही देखी किन्तु उसके गीत और मृच्छकटिकम से मुझे अंदाज़ा हो गया कि मूवी में क्या होगा।
ये तो रही पृष्ठभूमि!
अब आते है मूल चर्चा पर, नाटक एक वेश्या(गणिका) के प्रेम के ऊपर है। वेश्या, वेश्यावृत्ति ये दो शब्द सम्भवतः एक ही अर्थ में प्रयोग किये जाते हैं, पर मूलतः दोनो में अंतर है ,एक संज्ञा है तो दूसरी क्रिया । क्या आप जानते है…..इन दोनों के बारे में चिन्तन करें तो अर्थ कहीं गहराई में छुपा मिलता है। हमारी ये आँखे न इसे देख सकतीं ,न ही ये कान उसके मौन तरानो को सुन सकता है, इसे जानने समझने के लिए हमको वेश्या होना पड़ेगा…. अरे! अरे! अरे! रुकिए ज़नाब कुछ भी राय बनाने से पहले मेरी नज़र में वेश्या की परिभाषा तो जान लीजिये, हो सकता है कुछ सच्चाई निकल आये, क्यों कि सभ्य समाज दिन के उजाले में इस शब्द और व्यक्तित्व पर चर्चा अनुचित समझता है और सूरज ढलने के साथ ही उसकी ये मान्यता तथा मौलिकता भी क्षितिज तले सरक जाती है।
” वेश्या शब्द ऐसे कर्म संस्कार का परिचय देता है, जो असंख्य अन्य सांसारिक कर्मो की तरह ही है, किंतु जो नारी के मूक विद्रोह और पुरुष प्रधान समाज को मौन चुनौती की कसौटी में कसती है, ज़ाहिर है जब-जब पुरुष (रूढ़ि विचारधारा) को स्त्री विशेष से चुनौती मिली है तो स्त्री को या तो अग्नि परीक्षा से गुजरना पड़ा, या फिर सामूहिक अग्नि स्नान(जौहर) करना पड़ा, या सहमे समाज ने ऐसे ही किसी पंगु शब्द को गढ़ कर उसे सीमित कर दिया”
एक औरत के लिए सबसे ज्यादा कीमती क्या होताहै ,उसकी अस्मिता उसकी लाज जिसे वो हर कीमत दे कर भी सुरक्षित रखती है, हम सब के लिए इतना कीमती क्या है ,….हमारा जीवन जिसे सुरक्षित रखने के लिये हम हर वो कीमत अदा करते है जो हमारे बस में है।
एक स्त्री को अपनी लाज के खो जाने का भय और हम सब को मृत्यु का, ये भय हमे कुछ भी दांव में लगाने विवश कर देता है । वास्तव मे जब इन दो डरों की जंजीरे पिघलती है तो नवीन सृजन होता है। सीता अग्नि परीक्षा के बाद राजमहल में नही रहीं क्यों कि उनकी सीमा अब समाज से परे हो चुकी थी समाज अपने कलेवर में उनकी विशालता नही धारण कर सकता था, स्त्री जब अपने डर को पिघाल कर उससे खुद को गढ़ती है तो वो फ़ौलाद से भी अधिक मजबूत और ज्यादा आघात सहने की क्षमता विकसित कर लेती है।
वो डर जो उसे समाज मे पर्दे के भीतर रखता है, वो उसी डर को पिघाल कर , उस सीमा को ही नष्ट कर देती है जो उसे बांधती है वो पर्दा अब समाज के मुख में आ पड़ता है क्यों कि उसके इस चंडी स्वरूप को देख पाने और उसके तेज को सह पाने की पुरुषवादी मे हिम्मत नही होती, क्यो की वो अब भी रूढ़िवादिता और खुद को श्रेष्ठ रख सकने वाली जंजीरों में है , और स्त्री जंजीर पिघाल चुकी है। इस तरह समाज ने उसे एक अलग ही क्षेत्र और नाम दे दिया , या ये कहें कि, उसने अपना नया संसार रचा और उसकी परिधि खुद तय की जहां दिन के उजाले में पुरुष वादी समाज नही जा सकता, उसे पर्दा करके अपनी पहचान छुपा के वहा जाना पड़ता है।
पर्दा किस पर है? कभी सोचा?
टिप्पणी:-ये मेरे निजी विचार है, किसी भी तरह के सुझावों का स्वागत है।
जय श्री हरि🌼🌼❤❤🙏
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