कहानी के अगले भाग में स्वागत है, यदि भाग एक नहीं पढ़ा तो अवश्य पढ़े।

सुनसान अंधेरे जंगल में पहली बार मैं आया था। हल्की सी चांदनी रात थी, धुंधला धुंधला सा दिख रहा था। ठंडी हवा चल रही थी, नवंबर का महीना था। लेकिन मेरे पसीने छूट रहे थे, सांस फूल रही थी। शायद अब वह पीछा नहीं कर रहे। थोड़ा सा मन शांत हुआ, लेकिन डरावना जंगल जो मुझ से भी अधिक शांत था मुझे अशांत कर रहा था। मुझे कोई रास्ता मालूम नहीं था। एक जगह रुकने से अच्छा है चलता रहूं, शायद कोई मदद मिल जाए। ऐसा सोच कर मैं आगे बढ़ा। 

प्रकृति के अलग ही रूप देख रहा था सुंदर है, लेकिन भयभीत करने वाला भी। थोड़ा दूर चलता हूं, एक पानी का स्त्रोत दिखता है। हिमाचल में ऐसे स्त्रोत मिलना आम बात थी। प्यास लगी थी पानी पिया। लेकिन आज दिवाली के पकवान खाने थे, यह क्या हो रहा है मेरे साथ। आज भूख को भी पानी से बुझा रहा हूं। जोर-जोर से रोया लेकिन खुद को रोका, कहीं कोई सुन ना ले।

आगे चलता गया एक सड़क दिखाई पड़ी। शायद अभी बनी नहीं है इसकी केवल कटाई हुई है मशीन से। सड़क को पकड़ लिया आखिर कहीं ना कहीं तो पहुंचा ही देगी। आशा की किरण जाग उठी। अपने आप को हौसला दिया और आगे बढ़ा लगभग कुछ देर और चला, लेकिन मेरी टांगे साथ कहां दे रही थी। थक गया था। वही सो गया सड़क के साथ दूर तक कोई नहीं था। अब समय का पता नहीं, ना जाने क्या समय हो रहा था। फिर उठा तो सुबह हो रही थी, चलने लगा लेकिन शरीर में ताकत नहीं थी। हिम्मत करके चला कुछ दूर एक घर दिखाई दिया, वहां एक मैया है अपनी बेटी के साथ रहती हैं। किसी को देखा नहीं था रात से। ऐसी भयानक रात के बाद जब मैंने उन्हें देखा तो मैं गले लग गया उनके और रोने लगा जोर-जोर से ।अपने मातृ स्वभाव के वशीभूत होकर मुझे अपने पुत्र के समान ह्रदय से लगा दिया उन्होंने। मैंने पूरा वृतांत कह डाला कि क्या हुआ मेरे साथ।

 आगे क्या हुआ?

 मैं घर पहुंचा या नहीं?

  उन गुंडों का क्या हुआ?

  प्रतीक्षा करें अगले भाग की।

 

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