श्री हरि भगवान के दाहिने कांधे पर तिल है !
मेरा पैर कालीन में रिपटा और मैं गिरते गिरते बची क्योंकि श्री हरि भगवान की सुडौल सुदृढ़ भुजाओं ने मुझे यकायक थाम लिया था। इस पशोपश में श्री हरि भगवान का अंगवस्त्र थोड़ा सा सरक गया और अद्धभुत अनुपम काला चाँद उनके कंधे का मुझे नज़र आ गया। उनके विग्रह को जीवंत होने पर मुझे इतना आश्चर्य न हुआ जितना उनके शालिग्राम के दर्शन पा हुआ। इतने वर्षों से मैं उनको प्रतिदिन निहारती थी, उनके प्रत्येक अंग प्रत्यंग को सराहती थी। पर उनके अंगवस्त्र के पीछे श्याम चंद्र छुपा था, मैं ये ना जानती थी। उनकी अनुपम कृपा हुई और उन्होंने मुझसे ये रहस्य उदभासित किया।
उनकी घुंटनों से भी लम्बी बाहें मुझे पथ भ्रष्ट होने से रोक रही थीं। पर मेरा मन तो तिल में ही उलझा था। उनके कोमल स्पर्श से जो तन मन में स्पन्दन हो रहा था उस से अधिक उल्लास व प्रसन्नता उनके तिल की एक झलक पाकर हो रहा था। शालिग्राम की तरह कोटि जन्मों के पापों का नाश करने वाला वह तिल आकर्षण का केंद्र था और एक शक्तिशाली चुंबक की तरह मुझे अपनी और खींच रहा था। मेरे मन में गुलज़ार की नज़्म की पंक्ति गूँज रही थी ‘एक सौ सोलह चाँद की रातें और एक तेरे कांधे का तिल।’ मन्त्र मुग्ध सी मैं उसे निहारती रही। मैं उसे स्पर्श करना चाहती थी, उसे चूमना चाहती थी और उस पे अपना तन, मन, धन सब कुछ न्यौछावर करना चाहती थी।
श्री हरि भगवान ने मणि जड़ित सुवर्ण का मुकुट सिर पर धारण किया हुआ था, कानों में मकराकृत कुण्डल पहने थे, भाल पर सुन्दर तिलक सुशोभित था, नेत्र नव -विकसित कमल के सामान थे और प्रत्येक अंग में आकर्षक आभूषण सुशोभित थे। पीताम्बर नील सजल मेघों में बिजली के सामान चमक रहा था। उनके सौन्दर्यै की छटा अगणित कामदेवों से बढ़कर थी। सौन्दर्यै रूपी सरोवर में उत्पन्न नील कमलों की माला के सामान उनके शरीर की आभा थी और श्याम तिल उस में एक भँवरे के सामान था जिसकी ओर मेरा मन खिंचा जा रहा था।
ऐसी हरि करत दास पर प्रीति।
निज प्रभुता बिसारि जनके बस, होत सदा यह रीति।
विनय पत्रिका में तुलसीदास जी कहते हैं कि श्री हरि भगवान अपने दास पर इतना प्रेम करते हैं कि अपनी सारी प्रभुता भूल कर अपने भक्त के अधीन हो जाते हैं। उनकी यह रीति सनातन है। मेरे मन के सब भावों को जानने वाले श्री हरि भगवान ने मेरा ऊपरी आवरण ज़रा सा दाई बाँह की ओर सरकाया। वह ढीला ढाला निर्लज माटी में जा मिला और इसी के साथ मेरे मन पर पड़े हुए जन्म जन्मांतर के कोटि धूलि धूसरित ईर्ष्या, द्वेष, काम, क्रोध, लोभ, मोह, लज्जा, मद व अहंकार के आवरण भी उतर गए। केवल शुद्धता रह गई -आत्मा रूपी। प्रभु ने प्रेम वश मेरे अमृतबिंदु को चूमा। मुझे स्मृति होई कि मेरे दाहिने कांधे पर भी तिल है, जन्म से ही। मेरा केशविन्यास खुल गया, वेणी के पारिजात पुष्प चहुँ ओर बिखर गए, नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी, मुझे शरीर की सुधि ना रही। मेरा एक एक अणु आनन्द सागर में गोते खाने लगा। मैं भगवान में समा गई। हम एक हो गए। कोई भिन्नता ना रही। अब हम आनन्दरूप, ज्ञानरूप, निर्विशेष, निर्लेप, निर्गुण, अद्वितीय, सर्वशक्तिमान, प्रकाशस्वरूप, सर्वसाक्षी और परब्रह्म थे।
पी. एस. – १. आप सभी के उत्साहवर्धक टिप्पणियों ने मेरी कल्पना को एक और उड़ान दी। आप सभी का तहे दिल से आभार।
फोटो साभार – रवि ओम त्रिवेदी जी
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