अधरं मधुरं वदनं मधुरं नयनं मधुरं हसितं मधुरं ।
श्रीवल्लभाचार्य कृत अष्टपदी की पंक्ति मन में गूँज रही थी, श्री हरि के दिव्य मङ्गल विग्रह का दर्शन करने पर। आनन्दकन्द, आनन्दनिधान व आनन्दरूप श्री हरि भगवान का दर्शन इतने निकट से करने का सुअवसर मुझे एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद आज प्राप्त हुआ था। मंत्र मुग्ध से मैं पलकें झपकाना भूल गई और मेरे नेत्र खुले के खुले रह गए उस सर्वांग सुन्दर सुमनोहर विग्रह को देख के। उदार हृदय भगवान ने अपने जन्म दिवस पर कुछ और अधिक उदारता दिखाई कि सभी सुधि जन को बारी बारी से सुअवसर मिले उनके साथ व्यक्तिगत समय बिताने का। कोई भी इस परम सुख से वंचित न रहे। ऐसो कौन उदार जग माही ?
मैं उनसे क्या माँगू उन श्री हरि भगवान से जो मेरे रोम रोम में बसे हैं, जो मेरी साँसों में रमे हैं, जो मेरे प्रत्येक विचार में हैं व जो मेरे साथ हर पल हैं। भगवान श्री हरि से प्रिय मुझे कुछ भी नहीं क्योंकि वे शाश्वत हैं और ये संसार क्षणभगुंर है। उन्होंने पहले ही मेरी झोली खुशियों से बिन मांगे ही भर दी है।
मैं क्या छोड़ूँ ? मुझे तो बस इतना मालूम है कि मैं आपकी हूँ और आप मेरे हैं। मैं मन, वचन और हृदय से कहती हूँ कि मैं आपकी हूँ। मैं खोटी खरी जैसी भी हूँ श्री हरि भगवान मैं आपकी ही हूँ। मै गुणों की खान हूँ या परम अवगुणी हूँ केवल आपकी और आपकी ही हूँ। आपके विशुद्ध प्रेम के रंग में मेरी बुराइयाँ धुल रही हैं और अच्छाइयाँ निखार रही हैं तथा मैं दिन प्रतिदिन निखार रही हूँ।
मैं भगवान के कोमल कपोलों को स्पर्श करना चाहती थी, उन पर लाल गुलाल मलना चाहती थी, होली खेलना चाहती थी। मगर डरती थी कि कहीं मैले न हो जाए उनके गाल। उनके अधरों से सुधा पान करने की तीव्र इच्छा को मन के किसी कोने में दबाये थी। मगर लोक लाज से आतंकित थी। मैं उनके आलिंगन पाश में बंध के मुक्त होना चाहती थी परन्तु मेरी निकटता उन्हें उनके अन्य भक्तों से दूर न कर दे इस भय से आक्रांत थी। मेरी कल्पना से कोटि गुना सौन्दर्येमय थे भगवान तो फिर ऐसे विग्रह को आलिंगन करने की किसकी इच्छा नहीं होगी ?
आनंद सागर में डूबे होए सात सेकंड, सात मिनट, सात घंटे, सात दिन, सात सप्ताह, सात महीने, सात वर्ष, सात जन्म या सात युग बीत गए थे। पुण्डरीक नयन भगवान के सान्निध्य से मेरा बदन शतदल पद्म की तरह महक रहा था। अंगों में पुलकावली हो रहे थी और नेत्रों में जल था। मेरे मलिन वस्त्र यकायक ही स्वर्णिम लालिमा बिखेर रहे थे। प्रसन्नता व उल्लास से मेरा शरीर पंख की तरह हलका हो गया था तथा चन्द्रहार, कंडी मटमाला, पंचलड़ी, हंसली, रानीहार, कमरबंध, लटकन, बाजूबंद, शीशफूल, कर्णफूल, हथफूल,अंगूठी, पाजेब, पैंजनिया आदि स्वर्णालंकारों के भार से मेरा पुलकित तन दबा जा रहा था। जैसे ही मैंने अपने पाँव गर्भगृह से बाहर जाने के लिए बढ़ाये तो मुझे अहसास हुआ कि मेरे पाँव गहरे लाल रंग के आलता से सुशोभित थे -एक सुहागन की तरह। एक अजीब सी खुशी की लहर दौड़ गई तन मन में। दोनों हाथों की सुरख चूड़ियाँ शहनायों सी बज उठीं। इन सब के बीच मैं भगवान के प्रेमानन्द मैं ऐसी डूब गई कि चरण स्पर्श करने की भी सुधि न रही, बिना मुड़े जरा सी ऊँची आवाज़ में मैंने कहा, “चरणस्पर्श जी।” और अपना बायाँ पाँव गर्भगृह की डयोढ़ी से बाहर निकला औरों को भक्ति और मुक्ति प्रदान करने के लिए।
श्री हरि के शुद्ध प्रेम व आशीर्वाद से मैं अपने अहंकार से लेकर सर्वस्व का त्याग कर मैं माँ बन गई थी, एक या दो की नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व की जिसके जीने का उद्देश्य स्वहित की जगह परहित हो गया था और अब मेरे लिए सन्ततियों का सुख व कल्याण ही सर्वोपरी था।
पी. एस. – १. केवल मेरी कल्पना की एक स्वच्छंद उड़ान।
२. हिंदी में os.me पर लिखने का मेरा प्रथम प्रयास।
फोटो साभार – रवि ओम त्रिवेदी जी (रामनवमी के दिन)
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