आइये आज आपको एक घटना के बारे में बताते हैं जो अभी कुछ दिनों पहले हुआ। जन्माष्टमी के बाद की एकादशी थी। घर से कुछ दूर पर एक नानीमाँ रहती हैं। पिछले साल उनके पति की मृत्यु हो गयी। बेटे की नौकरी रत्नागिरी में होने की वजह से उन्हें अब अकेले रहना पड़ता है। सनातन में एकादशी व्रत का बहुत महत्व माना गया है। ये बूढ़ी नानीमाँ भी एकादशी व्रत का पालन करती हैं।
इससे और कुछ हफ़्ते पहले मैं बैठ के श्री हरि के लिए लिखी एक कविता उन्हें (नारायण को) पढ़ के सुना रही थी। मुझे होश नहीं कब माँ मेरे कमरे में आई और पीछे खड़ी होकर कविता सुनने लगीं।
पूरी पढ़ने के बाद पीछे से माँ बोली,
“मज़ा आया आपके बद्रिका नाथ को?”
मैंने चौंक कर पीछे देखा और पूछा,
“तुम कब आई, माँ?”,
बिना उत्तर लिए ही बोल पड़ी,
“अच्छा छोड़ो! मैंने नारायण के लिए कविता लिखा!”
माँ ने कहा,
“कविता तो अच्छी है पर तुम्हारे नारायण को कुछ और भी है जो बहुत पसंद है। करोगी तुम उनके लिए?”
मैंने पूछा,
“बिल्कुल! स्वामी को भी ख़ुशी होगी ना फिर! बताओ, मम्मा, क्या करना है?”
माँ ने उत्तर दिया,
“नारायण को सबसे प्यारी है वैष्णव सेवा। उनके भक्तों का ध्यान रखोगी तो तुम्हारे श्री हरि को सबसे ज़्यादा ख़ुशी होगी। और वह खुश तो स्वामी डबल खुश!”
स्वामी की ख़ुशी का सुनकर मैं चहक कर पूछी,
“वैष्णव कहाँ मिलेंगे?”
माँ ने कहा,
“एक को जानती हूँ मैं। हेमू नगर वाली बूढ़ी नानी। उनके लिए एकादशी के व्रत के भोजन का बंदोबस्त कर के उनतक पहुँचाना होगा। कर पाओगी वैष्णव सेवा?”
तब से चालू हो गयी मेरी duty। हर एकादशी को नहा-धोकर, नित्य-पूजा कर के, फल-मिठाई-दूध वगैरह लेकर मैं नानीमाँ के पास चली जाती हूँ। ताकि नारायण और स्वामी ख़ुशी से ब्यौरा के नाचने लग जाएँ! हाय!
सेवा सनातन धर्म का एक मूलभूत संस्कार भी है। मुझे याद है महातपोस्थली अमरकंटक के घने जंगलो में एकबार एक मातृ-साधक से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था। वह माई की साधना वात्सल्य भाव में करते थे। यानी महादेवी को वह अपनी छोटी-सी मुनिया के रूप में पूजते थे। उनसे काफी देर तक महामाई के बारे में बात करने के बाद जब विदा लेने का अवसर आया तो उन्होंने मुझे पास बुलाया और बड़े ही प्रेम से सर पर हाथ फेरकर बोलें,
“माँ! मांग ले कुछ। वह भगवती देने को आतुर है।”
उसे वक़्त मेरी ज़िन्दगी में स्वामीजी आ आगमन हो चूका था और उनके अथाह प्रेम के कारण बहुत शांति थी मेरे भीतर। ऐसा कुछ था नहीं जिसकी इच्छा हो मन में और मैं माँग लूँ। पर उनका आदेश नहीं ठुकराना था। यह सनातन धर्म का दूसरा मूलभूत संस्कार – गुरुजनो की आज्ञा का सम्मान हर हाल में।
मैंने उनसे पूछा,
“बाबाजी, कृपाकर बताइये कि मैं एक क्या ऐसी आदत बनाऊँ कि पराभक्ति का दान दें माई मुझे?”
बाबाजी कुछ देरतक देखते रहें मुझे, फिर आकाश की तरफ देखने लगें और बोलें,
“तुम सीधे पराभक्ति ही माँग लेती, बेटी, पर तुमने कर्म को सामने रखा। ये बात बहुत अच्छी है। इस कारण आज मैं तुम्हें पराभक्ति का सबसे बड़ा रहस्य बताता हूँ।”
और यह सनातन का तीसरा मूलभूत संस्कार – कर्म को प्रधानता देना। याचक मांगते हैं। सनातनी कर्म द्वारा योग्य बनकर प्राप्त करते हैं।
बाबाजी ने आगे कहा,
“आज से नियम बना लो, बेटी, कि दोपहर का भोजन स्वयं करने से पहले 3 जीवों का पेट भरोगी। पशु, पक्षी, जानवर, कीट या मानव। पर 3 पेट भरने के बाद ही तुम अपना भोजन करोगी। पराभक्ति और ईश्वर-प्राप्ति का यही रहस्य है – उसकी सृष्टि की सेवा इस भाव से करो जैसे उसी की सेवा कर रही हो। यही भाव आधार है चरम प्राप्ति का। बाकी सब बस विधियाँ हैं इस भाव तक पहुँचने की। सेवा परमो धर्मः।”
पहला संस्कार – सेवा।
दूसरा – गुरुजनों का आदर।
तीसरा – कर्म को प्रधानता देना।
Fast Forward to 2022 – जन्माष्टमी के बाद वाली एकादशी। आपकी यह बंदरिया हरि-गुरु सेवा के लिए मालपुआ टिफ़िन में भरकर पहुंच गयी बूढ़ी नानीमाँ के घर। नानीमाँ बड़ी अच्छी-अच्छी बात करती है। ईश्वर के बारे में। सिद्धों के बारे में। बड़ा मज़ा आता है उनसे बात कर के। इस बार नानीमाँ थोड़ी घबराई-सी, उदास-सी थी।
मैंने पूछा,
“कौन काट लिया आपको, भई? मुँह क्यों उतरा है?”
नानीमाँ बोली,
“बिटिया! आज सुबह हम जप के वक़्त एक गलती कर दिए। मन भारी है। आज ना जप करते वक़्त हमको बहुत प्यास लगा। बहुत ज़ोर से। घर पर तो हम अकेले हैं। कोई पानी देने वाला नहीं था। प्यास के मारे जप भी नहीं हो रहा था। तो हम गुरुदेव को जो चिरौंजी और पानी का भोग लगाए थे, वही पानी पी गए भोग लगे अवस्था में।”
बोलकर वह फूट फूट के रोने लगी।
“गुरुदेव का पानी था वो। उनको चढ़ाये थे। हम पी गयें। हम उनको बोलें हैं कि आज दिन भर और रात भर सिर्फ जाप करेंगे उनके नाम का। सोयेंगे नहीं।”
नानीमाँ कि उम्र 85। सोयेगी नहीं बोल डाली अपने गुरुदेव को। मैंने उनके आँसू पोछें और एक गिलास में पानी लेकर उनको पिलाया।
“नानीमाँ, एक बात बताइये। अगर उस वक़्त आपके गुरुदेव सदेह, साक्षात आपके सामने बैठे होतें और आपको इतनी प्यास लगी होगी तो क्या वो अपना पानी आपको नहीं पिलातें?”
नानीमाँ का रोना बंद हो गया। उनकी आँखें दूर अपने गुरु की तस्वीर पर टिक गयी,
“हाँ बिटिया! वो तोह करुणा के सागर हैं। वो ज़रूर पिलातें।”
“तो नानीमाँ उस वक़्त आपकी बुद्धि में कौन डाला कि गुरुदेव वाली ग्लास से पानी पिलो? जिनको समर्पित की हो अपना सबकुछ उनके मर्ज़ी के बिना थोड़ी-ना हुआ होगा ऐसा!”
नानीमाँ की आंखें अब शान्ति से भर गयीं। वह अब भी रो रही थी पर ग्लानि से नहीं बल्कि कृतज्ञता से।
“बिटिया, पर मैं जप तो करुँगी। भले रात में ना जागूँ पर जबतक हो पायेगा मैं जप करुँगी। अपना प्रेम अर्पित करुँगी उनको। जब कोई मनुष्य मेरे लिए नहीं था पानी पिलाने को तब मेरे गुरुदेव ने मुझे पानी पिलाया। मुझे बुढ़िया को सब छोड़कर चले गयें पर मेरे गुरु ने मुझे नहीं छोड़ा। जप करने दे, बिटिया।”
“हाँ-हाँ, माई! भर-भर के नाम लो उनका। तुम्हारें ही तो है। कौन रोक रहा! बस बीमार मत होना। उनको भी बुरा ही लगेगा न अगर तुम बीमार हुई तो? इसलिए सो जाना वक़्त पर और मालपुआ लाई हूँ। भोग लगा के खा लेना। मैं जाती हूँ अब।”
नानीमाँ से विदा लेकर मैं घर आ गयी। माँ को मैंने सब बात बताई। माँ मुस्कुरा के बोली,
“काम बढ़िया की हो पर एक बात बताओ। तुमको कैसे पता की वह ग्लानि उनके गुरुदेव ने नहीं डाली?”
मुझे लगा मेरी माँ अपना मानसिक संतुलन खो बैठी है।
“ग्लानि किसके गुरुदेव डालते हैं, अम्मा!”
माँ ने मुस्कुराते हुए कहा,
“अच्छा, इसपर विचार करना जो मैं आगे बोल रही हूँ। मनुष्य का दिमाग अच्छा और बुरा में भेद पैदा करता है। ग्लानि बुरी और भक्ति अच्छी। पर गुरु तो हर द्वैत, हर भेद से ऊपर उठ चूका है। उसके लिए तो हर भावना अपने शिष्य की आध्यात्मिक उन्नति का मार्ग ही है बस। गुरुदेव को अगर नानीमाँ की आत्मा समर्पित है तो ग्लानि किसने डाला मन में ताकि उसके कारण नानीमाँ और अधिक गुरुमंत्र का जाप करें एकादशी के दिन? और जाप की ऊर्जा से उन्हें खुद ही समझ आ जाता कि ग्लानि जैसा कुछ नहीं है। सब तो वास्तव में गुरु की लीला और उनके प्रशिक्षण का तरीका है बस!”
तीन लोग। तीन मत। एक ही घटना को देखने का तीन अलग-अलग नजरिया। और जानते हैं सबसे प्यारी बात क्या है हमारे धर्म की? सनातन में तीनो के तीनो मत ही एकदम सटीक हैं। नानीमाँ दास्य भाव में थी। मैं प्रेम भाव में। और माँ? माँ के अंदर का ज्ञान पराभक्ति से निखरकर बाहर प्रकट हो रहा था। और सनातन धर्म की दृष्टि से तीनो ही नज़रिये एकदम सही है। और कोई धर्म होगा जो इतने सारे मतों को खुद में इतनी खूबसूरती से समेटकर रख सके, बताइये!
जय श्री हरि-माँ!
PS. समाविष्टि माने inclusiveness. किसी शब्द का मतलब ना समझ आये तो Comments में पूछिए अपनी बंदरिया से 🙂
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