मन! तू क्यों रहता परेशान?
बोल माई! लगा तू ध्यान!
बावरे मन! तू क्यों रहता परेशान?
चमक-दमक से की गयी पूजा,
अहम् जगाता मन ही मन।
तू छुपकर करना उसकी साधना,
ना जाने कुछ भी मनुज-गण।
धातु-पत्थर- माटी से गड़कर,
क्या करना है उसकी सूरत?
हृदयकमल के आसान पर धर,
अपने मन को बना के मूरत।
56 भोग लगा के उसको,
क्यों करना भला आयोजन?
प्रेम से दे तो बासी खाले,
इतना कोमल माई का मन!
उबले चावल भोग लगाओ,
एक थाली में सानो दाल।
उसको खिला, तू भी खा,
काहे शरम! माँ के लाल!
दीया-बाती-धूप-बत्ती,
क्या काम भला इनकी ओज?
अनाहत का काला माणिक,
जलाओ माई की अखंड जोत।
ए पाजी!
भेड़ काटे, बकरा काटे,
काटे हैं महिष!
उलटी खोपड़ी! मानव काटे,
बलि चढ़ाये शीश!
माई बोली बच्चा काटो?
भोग लगाए रक्त!
षड-रिपुओं की बलि चढ़ाके,
बन तू असली भक्त!
ताम-झाम का क्या प्रयोजन,
ढाक-ढोल-मंजीरा-खोल।
श्रीचरणों में रमा के मन,
ताली बजा “जय माई” बोल!
बंगाल के एक बड़े मातृ सिद्ध हुयें, श्री रामप्रसाद जी। माई के अनन्य उपासक। उन्हीं की लिखी एक कविता से ये प्रेरित है।
स्वामीजी ने एक Discourse में कहा था कि सनातन धर्म के वृक्ष की जड़ो में ज़हर डाल दिया गया है और अब इस बृहद वृक्ष को बचाने का सिर्फ एकमात्र तरीका है कि उसका पुनः रोपण किया जाए। अनंत सम्पदाओं और संभावनाओं से भरे सनातन धर्म नाम के कल्पतरु को ज़हरीली मिट्टी से उठा कर नए स्वच्छ मिट्टी में लगाया जाए।
एक दुसरे Discourse में गुरुदेव ने कहा था कि हमें ज़रुरत है संस्कारों पर काम करने की।
मंथन करने पर और बड़ो से बात करने पर मुझे भी आभास हुआ कि वास्तव में एक बहुत बड़ी चूक जो हमसे होती आ रही है वो ये है कि हमने धार्मिक चीज़ों को बहुत Complicated बना दिया है। जीवन के कार्यों को आसान करने के लिए हमने बड़े से बड़े और छोटे से छोटे मशीन तो बना लिए पर जीवन को जटिल कर बैठें!
धर्म abstract या अमूर्त हो सकता है। पर धार्मिकता सरल होती है। जानते हैं क्यूँ? क्यूंकि धर्म ईश्वर तक जाने का रास्ता तैयार करता है और ईश्वर सरलता में रहते हैं।
मेरी शारीरिक उम्र के अनुसार मैं अभी युवा में आती हूँ। तो युवाओं के जैसी मेरी हरकतें भी हुआ करती थी – देर से सोकर उठना, रोज़ न नहाना, भर-भर के राक्षस जैसे माँस-अंडा निगलना, खून की जगह नसो में अहंकार दौड़ना, बुद्धि स्थिर ना होना, बिना लगाम भोग-विलास में लिप्त रहना, धर्म का अता-पता ना होना और पता नहीं कितना कूड़ा-करकट था भीतर।
पर आज 3 साल से अधिक होने को है, माँ को फिर कभी बोलना नहीं पड़ा कि नहा लो। सुबह बिना नहाये और बिना नित्य-पूजा किये भोजन का दाना मुँह में नहीं गया। कैसे? स्वामीजी के कारण। क्यूंकि असली सनातन धर्म से तो उन्होंने ही मिलाया है। सुबह नहाना और नित्य-पूजा और जप के बाद ही भोजन करना यह सनातनी संस्कार है जो मुझे मेरे गुरु से मिला। अहंकार का पाश हल्का हुआ है पर टूटा नहीं है। शुद्धिकरण आज भी चल रही है। पर बात यह है कि अब जीवनशैली सच में सनातनी है। बस नाम से नहीं, कर्म से।
जानते हैं मेरी आलसी और भोग-माया में लिप्त बुद्धि को कैसे तोड़ा स्वामी नें? धर्म को सरल बना के।
स्वामीजी चाहते तो 11 पंडित बैठाकर रोज़ वेदपाठ से नारायण की पूजा करवा सकते थे। पर उन्होंने बद्रिका के गर्भगृह में, जहाँ साक्षात भगवान् श्री हरि स्वयं विराजमान हैं, सबकुछ एकदम सरल रखा – एक ही आरती, उसी आरती से अभिषेक भी हो जाता है, आरती भी हो जाती, महादेवी की आराधना भी हो जाती और हरि-हर को भी खुश कर दिया जाता। यज्ञ देख लीजिये। स्वस्तिवाचन देख लीजिये। साधना app से कोई साधना उठा लीजिये।
स्वामीजी का सबसे बड़ा आशीर्वाद इस सम्पूर्ण मनुष्य जाती को यह है कि उन्होंने सनातन धर्म पर पड़ी संकीर्णता, रूढ़िवादिता, जटिलता की धूल को साफ़ करके उसके वास्तविक स्वरुप में एकदम सरल करके दे दिया।
इतना सरल कि एक बच्चा भी पूजा उतने ही प्यार से कर पाए जितना की एक बड़ा। इसी सरलता के कारण आज हम सब बस surname से सनातनी नहीं हैं बल्कि कर्म से सनातनी है; आचरण से सनातनी हैं; संस्कार से सनातनी हैं।
रामप्रसाद जी भी माई की पूजा में सरलता लाने कह रहे हैं। उनका और ऊपर लिखी कविता का मर्म यही है कि भई! अम्मा से कैसा जटिल व्यवहार! क्या दिखावटी पूजा-पाठ! बाहर की रौशनी से भीतर कैसे प्रकाश हो!
माई के साथ तो बढ़िया अकेले में पसर के बैठो, एक-आध बढ़िया भजन गाओ, और एक थाली में लगाओ दोनों भोग! क्या बलि जैसी अजीब प्रथा को चलाना! माई अपने बच्चे का खून लेगी तुमसे! पगले! रूह-अफ़ज़ा पिलाओ, भई! अनार का रस पिलाओ। Vampire थोड़ी है जो बैठ के निरीह प्राणियों का खून पीयेगी!
एक पीढ़ी का पाखण्ड दूसरे पीढ़ी की परम्परा बन जाती है। जटिलता में फसने की जगह ववेक का हाथ थाम लें और सरलता को अपनायें क्यूंकि बात सिर्फ यही है कि धर्म ईश्वर तक जाने का रास्ता तैयार करता है और ईश्वर सरलता में रहते हैं। बाकी सबकुछ बन्दर का नाच है!
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