शीशे में खुद को देख एक मनुष्य सोचा
आज ज़रा बाल कटवा लूँ , थोड़ा और जवाँ दिखूँगा

गाड़ी में बैठा तो बोला, अब और क़ीमती लेता हूँ
अपनी प्रतिष्ठा में चार चाँद लगा लेता हूँ

काम करने बैठा तो सोचा, इस कुर्सी को और विशाल बनवाता हूँ 

मेरे पद की भव्यता सबको दिखाता हूँ

शाम को अपने बाग़ीचे में बुद्ध की प्रतिमा को देखा, तो मन में प्रश्न आय

ऐसा क्या था इनमें, जो मैं अपने घर ले आया?

मिट्टी की उस मूर्त की मुस्कान अद्भुत थी
वही उसे आकर्षित कर खींच लाई थी

न महँगी गाड़ी, न बड़ा औंधा और न ही विशाल घर था            बुद्ध का मुस्कान पूर्ण चेहरा ही सम्पूर्ण था

भौतिक वस्तुएँ जीवन में आती जाती रहती हैं                      मनुष्य को कुछ क्षण की खुशी भी प्रदान करती हैं

पर फिर वही प्रश्न उठता है, अब क्या लाऊँगा ?
अपनी खुशियों को कैसे दिखाऊँगा?

इसका उत्तर सूर्य और चाँद में दिखेगा                               प्रकृति के खेल से कहीं सूर्य उदय, तो कहीं अस्त होता है

कभी चंद्र पूर्ण, तो कभी अमावस का दिन होता है
पर दोनों पूर्ण रूप से अपने स्थान पर तत्पर रहते हैं

अपना कार्य कर, रौशनी छलकाते रहते हैं                          किसी को कोई भी आकार दिखे, उन्हें विचलित नहीं करेगा

उनका कार्य और आकार सम्पूर्ण ही रहेगा

जीवन जीने के लिए, सब हमारे अंदर बसता है
बाहरी मुखौटा, बस कुछ दिन का क़िस्सा है

औंधा, घर, गाड़ी बदलते रहेंगे                                              पर हम अपने आप में सम्पूर्ण हैं, सम्पूर्ण ही रहेंगे