एक कवि, नदी और हवा के बीच की बातें-

कवि: नदी, तुम बिल्कुल नारी जैसी हो — सुंदर पर अस्थिर, कोमल हो, पर हो स्वेच्छाचारी, अपनी ही मर्ज़ी की मालिक | अपने हर लचकते मुड़ाव की सिल्वटो में मुझे मुग्ध करती हो| असल में, ना जाने कौन सा तीर बर्बाद करती हो और किस छोर को आबाद करती हो | मन नही है तुम्हारा? दुख होता है क्या कभी?

नदी लहराई और उसमे से कलकलाहट की एक आवाज़ आई, मानो खिलखिला रही हो कवि की बातों से| एक शीतल, सादी- सी हवा कवि को छूकर चली गयी |

नदी (रहस्यमयी ढंग से मुस्कुराकर ): अच्छी लगी हवा?

कवि (मानो किसी घोर निद्रा में हो): हाँ!

नदी: जानते हो क्यूँ?

कवि: नहीं, बस इतना ही जानता हूँ कि तुम माया हो, अपने छल में कैद कर लेती हो मुझे |

नदी (किसी अल्हड़ हवा के स्वर में): सही कह रहे हो| मैं माया के जाल में तुम्हें कैद कर लेती हूँ, मन की मालिक हूँ, अस्थिर हूँ | इसलिये पुरुष, मेरी ज़रा- सी छुअन के लिये तुम तरसते हो | इसलिये मेरी ज़रा-सी मुस्कुराहट ढूंढते फिरते हो तुम| और जब मैं मिल जाऊँ, तो मुझे बाँधने की चाह तुम्हे सोने नहीं देती | कभी तो शब्दों पर शब्द सजाकर नैतिकता का बाँध बना देते हो, तो कभी ईंटों पर ईंट बैठा कर पत्थरों का बाँध बना देते हो| और फिर…

कवि (अपनी साँसों को थाम कर): फिर?

नदी के उपर खेलती हवा मानो बेहद दुखी हो गयी|

हवा (भारी मन से): फिर तुम्हारे बंधन में नदी मर जाती है| खुद को तुम्हारे लिये ताल-तालाब में बदल देती है, और तुम पुरुष, उसकी अहमियत भूल जाते हो| बेचैन रहती है, अनंत वेग से बहती रहती है, मानती हूँ कि वो अस्थिर है, माया है, लेकिन, पुरुष, दम घोंट कर मारने पर क्या तुम्हे खूनी कहना गलत है?

कवि (तिलमिलाकर चिल्लाते हुए): क्यूँ… वो बंधन में खुद को जकड़ने ही क्यूँ देती है? उसकी क्या गरज है? पुरुष के प्रति उसकी जवाबदारी तो नहीं|

खिलखिलाकर हस पड़ी हवा | नदी के उस तीर पर बूढे बरगद के नीचे की छाया आकर कवि से लिपट गयी|

हवा (मासूमियत से): अरे बावरे पुरुष! क्या तुमने कभी मोहब्बत का नाम सुना है!

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#translation of a Bangla poem by an unknown poet
#समर्पित