जय श्री हरि:

आशा आकाँक्षाओं से युक्त इस जीवन में
हम कभी खाली नहीं हो सके
मन की असीमित उड़ानों से उतरकर
हम कभी पैर जमीन पर रख नहीं सके

स्वार्थ-पूर्ति में इतना मग्न हुए
हम कभी किसी से मिल ही नहीं सके
कीर्ति और यश की अभिलाषा ने इतना दूर कर दिया
हम कभी किसी के पास जा नहीं सके

स्वयं के सुख ने इतना अँधा कर दिया
हम कभी किसी के दुःख को देख न सके
सुख और दुःख के इस खेल में
हम कभी किसी को सुख दे न सके

परदोष की दृष्टि ने हमें इतना अंधा कर दिया
हम कभी अपने दुर्गुण देख ही न सके
दूसरो के सुखों से ईर्ष्या करते हुए
हम कभी अपने सुखों को देख ही न सके

जीवन की सार्थकता सरलता में है
जो हम कभी हो नहीं सकते
जीवन की पूर्णता निर्मलता में
जो हम कभी बन नहीं सकते

श्री हरि के आँगन में ‘अमित’ आ तो गए
पर वह उनके कभी हो नहीं सके

यह एक कविता तो नहीं है ,अपितु कविता लिखने का प्रयास है, आशा करता हूँ आपको यह पंक्तियाँ अच्छी लगीं हों।