नमस्कार।
अपनी गलतियों को स्वीकारना, उनकी जिम्मेदारी लेना कोई बोझ का कार्य नहीं होता। बल्कि यह तो बहुत ही हल्का कर देने वाला कदम होता है। मैं अपनी सभी की गई गलतियों की जिम्मेदारी स्वयं लेता हूँ। मैं जानता हूँ कि इसमें समय लगेगा, बहुत संभव है कि मैं भूल भी जाऊँ, इस बात को भी नकार नहीं सकता लेकिन यदि अंतत अपने सारे कर्मों का भोक्ता मुझे ही बनना है तो क्यों न इन्हें जिम्मेदारी के साथ किया जाए। मेरी गलतियाँ अनुभवों के रूप में मेरी स्मृति में अब भी साथ हैं।
मेरे विचार और कर्म मेरे शरीर का, मन का हिस्सा बन चुके हैं। चाहे वे मैंने कितने ही बेहोशी में किये हों, एक बात स्पष्ट है वह यह कि मैं उस बेहोशी की अवस्था में भी पूरी तरह होश खोया हुआ नहीं था। चाहे वे क्षण क्रोध के हों, या लोभ के, काम के हों या भय, मुझे स्मरण है कि वे मेरे ही द्वारा अज्ञानवश किये गए, उनका कारण मैं था। मेरे मस्तक के उठे होने या झुके होने का, सीने के चौड़े होने या धसे होने का, शिखरों पर होने या खाइयों में भटकने का, मेरे साथ हो रहे लगभग प्रत्येक घटना का आधार मुझसे ही है।
भगवान ने बोला है न- उद्धरेदात्मानं नात्मानम अवसादयेत। इस बात को अर्थ, मर्म अब कुछ-कुछ समझ आ रहा है। अब यदि मैं अपना बाँया पैर भी उठाता हूँ तो भले ही यह कर्म मेरे द्वारा रचे गए पुराने सॉफ्टवेयर से आ रहा हो किन्तु मेरे जाने बिना यह हो ही नहीं सकता। कर्म और पुराने सॉफ्टवेयर के उल्लेख से भगवान की एक और बात याद हो आई कि मनुष्य क्षण भर भी बिना कर्म किये बिना नहीं रह सकता।
क्यों भगवान? क्यों कि प्रकृति के तीन गुण बरबस उससे कर्म करा ही लेंगे। मनुष्य प्रकृति से निर्मित है, बँधा हुआ है, उसी से संचालित होता है, किन्तु प्रकृति का पार एक दिन तो पाना ही है। तो जिम्मेदारी कोई बोझ नहीं हैं बल्कि यह अपने जीवन को स्वयं गढ़ने की दिशा पहला कदम है, जो हर किसी व्यक्ति को उठाना चाहिए। मैं ही अपने भाग्य का निर्माता हूँ।
शुभकामनाएँ। धन्यवाद।
Comments & Discussion
12 COMMENTS
Please login to read members' comments and participate in the discussion.