स्वर्ग और नर्क

“क्या स्वर्ग और नर्क वास्तव में कहीं हैं अथवा तो वे मात्र एक कल्पना हैं?”

“क्या मरणोपरांत हम सच्च में स्वर्ग अथवा नर्क में जाते हैं?” एक दिन किसी ने मुझसे पूछा।

“नहीं। ” मेरा उत्तर था।

“तो क्या आप यह कह रहे हैं कि ग्रंथ मिथ्यावादी हैं?” उन्होंने दृढ़तापूर्वक कहा।

इसका प्रत्युत्तर मैंने एक कहानी से दिया जो प्रथम बार मैंने सूफी संत हज़रत इनायत खान के प्रवचन में पढ़ी थी।

एक शिष्य गत कई वर्षों से अपने गुरु के सानिध्य में अभ्यासरत था, किन्तु अभी तक वह किसी भी प्रकार के दिव्य अनुभव अथवा किसी भी विषय की सम्पूर्ण जानकारी से वंचित था।

एक दिन उसने अपने गुरु से विनती की, “हज़रत साहिब, मुझे स्वर्ग क दीदार कराने की कृपा करें। अब तो मुझे आपकी खिदमत में रहते एक लंबा अरसा हो गया है।”

“मेरे बच्चे”, संत बोले, “जाओ और साथ वाले कमरे में बैठ जाओ”, नेत्र बंद कर अविचल बैठे रहो। तुम्हें स्वर्ग दिख जाएगा”।

“सचमुच, बस इतना भर करने से”।

“जाओ”।

शिष्य साथ वाले कक्ष में जा कर ध्यान करने लगा। उसे दर्शन तो अवश्य हुए किन्तु वह सब उससे कहीं भिन्न था जिसकी उसने आशा की थी। उसने जो देखा वह केवल एक बड़ा सा मैदान था और कुछ नहीं। वहाँ न सुंदर महल थे, न ही शहद की नदियां! ऐसे ही वहाँ न तो दूध के सागर थे और न ही रत्नजड़ित ईंटें। छतों पर हीरे जवाहरात की नक्काशी भी न थी। यह क्या? वहाँ दूर तक फैली बंजर भूमि के सिवा और कुछ न था!

वह जितना निराश था उतना ही परेशान भी था। ऐसी मन:स्थिति लिए वह अपने गुरु के समक्ष पुनः उपस्थित होता है।

“ऐ मेरे मुर्शिद”, अपनी निराशा छुपाते हुए उसने विनती की, “अब जब मैंने स्वर्ग देख लिया है तो मुझे नर्क भी अवश्य देखना चाहिए”।

“आ…आ….. आ….”, गुरु ने अपनी श्वेत दाड़ी सहलाई। “अच्छा तो ठीक है, जाओ और पुनः ध्यानावस्था में बैठ जाओ । तुम्हें नर्क का भी दीदार हो जाएगा।”

शिष्य ने गुरु की आज्ञानुसार ध्यान किया और एक बार पुनः उसे बंजर भूमि के सिवा और कुछ दिखाई न दिया। वहाँ कहीं आग उगलते साँप न थे, कोई नर-पिशाच या भयंकर जानवर न थे, कोई किसी को कोड़े नहीं मार रहा था, कोई उबलते हुए तेल के कड़ाहे न थे। उसने जिस ओर देखा, जहां वह खड़ा था वहाँ से लेकर हर दिशा में, क्षितिज के दूसरे छोर तक, केवल बंजर भूमि ही थी। “यह क्या है!”, उसने सोचा। “यह ऐसा नहीं हो सकता!”

“मौला”, वह दृढ़ता पूर्वक बोला, “वहाँ देखने जैसा कुछ न था। मैंने स्वर्ग या नर्क, कुछ भी नहीं देखा”।

तुम्हारा तात्पर्य यह है कि तुम आशा कर रहे थे कि स्वर्ग में तुम्हें भव्य इमारतें, मनोहारी दृश्य और अलौकिक सौंदर्य के दर्शन होंगे”?

“जी, हाँ”।

“अथवा तो नर्क में सर्प, आग, राक्षस व भयानक अकथनीय यंत्रणा?”

“बिलकुल ”।

“मेरे पुत्र”, गुरु ने कहा, “वहाँ कुछ भी नहीं है। तुम्हें सब कुछ यहीं से ले कर जाना होगा। यही वो स्थान है जहां कुछ भी एकत्र किया जा सकता है, चाहे स्वर्ग के सुख अथवा नर्क की आग”।

अन्य किसी भी बात से बढ़ कर, स्वर्ग और नर्क जीवन के प्रति हमारे दृष्टिकोण के दो भिन्न पहलू हैं। ये हमारी भावनाओं एवं कर्मों के दो मालगोदाम हैं। यहाँ कितना अधिक सामान भरा है, यहाँ से सुगंध आ रही है अथवा दुर्गंध, यह सब निर्भर करता है कि हमने इन गोदामों में क्या क्या संग्रहित किया है। जब हम संतोष व शुक्राने से भरे होते हैं तो हम स्वर्ग में हैं। जब हम क्रोध में उद्विग्न अथवा ईर्ष्यालु होते हैं, तो हम नर्क में हैं। दोनों ही हमारे मन की दशा, विभिन्न स्तर, एवं आने-जाने वाली, चक्रीय अवस्थाएँ हैं।

यदि हमें स्वर्ग की आकांशा है तो अपने विचारों, कर्मों व शब्दों के प्रति हमें सदा सचेत रहना होगा। अपने हृदय में क्षमा एवं करुणा की भावना की खोज करनी होगी। हमें सदा कृतज्ञ रहने का अभ्यास करना होगा। हम महत्त्वाकांक्षी तो बन सकते हैं, तदपि हमें सदा कृतज्ञ तो रहना ही चाहिए। संतुष्टि का भाव हर सकारात्मक भावना का मूल बीज है। और, किसी से बंधे रहना हर नकारात्मक भावना की जड़। उदाहरण के लिए जब हम अपने मत से बंधे होते हैं जैसे कि क्या सही है, या सब कुछ ऐसे होना चाहिए, और जब वह हमारी सोच के अनुरूप नहीं होता तो हम क्रुद्ध हो जाते हैं। जब हम किसी एक व्यक्ति से बंध जाते हैं या जिस व्यक्ति पर हम अपना अधिकार समझते हैं वह यदि हमारी आशानुसार नहीं चलता, तो हमें ईर्ष्या होती है, इत्यादि।

मानव मन से भावनाएँ उसी प्रकार अविच्छेद्य हैं, जिस प्रकार सागर से लहरें। उन्हें अलग नहीं किया जा सकता। तथापि, जिस प्रकार से हमने अपने जीवन में अन्य सब कुछ सीखा है, उसी तरह हम निर्लिप्त रहना भी सीख सकते हैं, हम कृतज्ञता का अभ्यास कर सकते हैं। संभवतः हम लहरों को पृथक न भी कर पाएँ, किन्तु हम इच्छाओं व भावनाओं की लहरों व सुनामी के लिए स्वयं को तैयार तो कर ही सकते हैं। वेदों में इसे वैराग्य कहा गया है : एक सुखद पृथकता/ अनासक्ति की स्थिति (जिसे अभ्यास द्वारा सीखा जाता है), जहां आप मैदान में फुटबाल की भांति तरह तरह की भावनाओं के बीच इधर से उधर उछाले नहीं जाते।

“स्वर्ग, पूर्तित इच्छाओं का दर्शन है और नर्क, आत्मा के धधकने का प्रतिबिंब” – उमर ख़ैयाम कहते हैं।

तथापि, इच्छाओं को पूर्ण करने मात्र से वे पूर्ण नहीं हो जातीं। इच्छाओं की पूर्ति अनेकानेक और इच्छाओं को ईंधन देती है। इसके स्थान पर हमें इच्छाओं के मूल तक जाना चाहिए – हमारा मन; और, इसके साथ मैत्री भाव बनाना चाहिए। जब आपका मन आपकी अंतरात्मा की ध्वनि के साथ समन्वित होता है, ऐसी स्थिति में वह अधिक भली भांति सुन सकता है। तब आप अपनी प्राथमिकताएँ और भली प्रकार से तय कर पाते हैं। आप इस बात पर ध्यान दे पाते हैं कि कौन सी इच्छाएँ आपके लिए वास्तव में महत्त्वपूर्ण हैं, अपितु इसके कि आप जीवन में आई प्रत्येक नवीन वस्तु/स्थिति/भाव के संग बहते ही चले जाएँ। केवल एक केन्द्रित मन ही उस अविकारी जागरूकता का पात्र हो सकता है। संभवतः आपके लिए एक बड़ा घर, एक तेज़ रफ्तार गाड़ी, इत्यादि महत्त्वपूर्ण हों और हो सकता है न भी हों। आप यह तब तक नहीं जान सकते जब तक आप उसके विषय में सम्पूर्ण चिंतन नहीं करते, अथवा तो शायद जब तक आप उसे अनुभव नहीं कर लेते। किसी भी रूप से, जब तक आप अपने चुनाव के प्रति सचेत हैं, आप अपना अधिक समय स्वर्ग में व्यतीत करेंगे।

एक धनाड्य सेठ जो अपनी धन-सम्पदा के प्रति अति आसक्त था, किसी तरह स्वर्ण मुद्राओं से भरी दो थैली स्वर्ग तक ले जाने में सफल हो जाता है। किन्तु उसे द्वार पर ही रोक दिया जाता है।

 “यहाँ धरती से लाई कोई भी वस्तु अंदर लाने की अनुमति नहीं है,” देवदूत ने कहा। “तुम्हें यह सब यहीं छोड़ना होगा।”

“कृपया मुझे यह ले जाने दें।” वह प्रार्थना करने लगा। “यह मेरे लिए अति महत्त्वपूर्ण हैं। यह मेरे सम्पूर्ण जीवन की कमाई है।”

उसे समझाने का प्रयत्न किया गया कि ऐसा संभव नहीं, किन्तु जब वह नहीं माना तो उन्होंने इतनी सहमति दी कि चलो देख लिया जाये कि उसके पास था क्या!

“यह क्या?”, देवदूत थैलियों में देखते ही बोला, “तुम मार्ग में पड़े पत्थर, ठीकर उठा लाये हो?”

इस अकल्पनीय स्तर तक विस्तृत, असीम-अपार सृष्टि रचना में, हमारी उपार्जित वस्तुओं एवं उपलब्धियों का महत्त्व न के बराबर है। हमारा विश्व, उस वृहद विश्व के समक्ष एक धूल के न्यूनतम से भी न्यूनतम कण से भी न्यून है। अंततोगत्वा, इस संसार में समग्र रूप से जिस बात का मूल महत्त्व है वह यह नहीं कि आपके बैंक में कितनी अधिक धनराशि है, अपितु यह कि आपका हृदय कितना विशाल है। यहाँ ऐसे बहुत से लोग हैं जिनके पास दिखाने के लिए करोड़ो की धनराशि है, किन्तु वे एक दर्द से भरा, एकाकी जीवन जी रहे हैं। बहुधा वे आध्यात्मिक सम्पदा से रिक्त हैं।

हमारे निष्काम कर्म ही एकत्रित हो कर हमारी आध्यात्मिक सम्पदा निर्मित करते हैं। स्वर्ग हो तो विनम्रता पूर्वक और नर्क हो तो शिष्टता पूर्वक यात्रा सम्पूर्ण करना – इसके लिए महान आध्यात्मिक सम्पदा का होना अनिवार्य है। और उस सम्पदा के उपार्जन हेतु यह आवश्यक है कि हम अपना जीवन कृतज्ञ भाव से परिपूर्ण हो यापन करें। कृतज्ञता, मात्र धन्यवाद करना भर नहीं, अपितु इसका अर्थ दयावानपरोपकारी होना भी है। जब आप किसी भोजनालय में भोजन करते हैं, आप संतृप्त अनुभव करते हैं – अच्छा है। आप ईश्वर का धन्यवाद करते हैं – यह भी अच्छा है। किन्तु, जब आप कुछ राशि उसे भी देते हैं जिसने आपको भोजन परोसा, वास्तव में तब आप अपना कृतज्ञभाव व्यक्त करते हैं। जब आप उस व्यक्ति का हृदय से आभार मानते हैं, तो ऐसा करके आप अपनी आध्यात्मिक सम्पदा निर्मित करते हैं।

जिस क्षण आप कुछ उदास अथवा खिन्न/दुखी अनुभव कर रहे हों, उस समय आपको किस भीतरी ख़जाने को ढूंढ बाहर लाना है, उसका अनुपात आपके द्वारा अर्जित आध्यात्मिक सम्पदा के अनुरूप ही होगा। और, यही मूलमंत्र है; यह उधार नहीं लिया जा सकता, इसे स्वयं ही अर्जित करना पड़ता है।

प्रत्येकनिष्कामकर्म, प्रत्येक कृतज्ञ भाव, प्रत्येक प्रेमपूर्ण शब्द, प्रत्येक दयामय विचार – यह सब आपको वह बनाते हैं जो आप अभी हैं। वे हमारा जगत निर्मित करते हैं। स्वर्ग अथवा नर्क – वे केवल हमारे भीतर नहीं हैं, वे हम ही हैं।

दयावान बनें। आपको प्राप्त सुखों व अनुकूलताओं का स्मरण रखें।

 

शांति

स्वामी