प्रयाग.. प्रयाग..प्रयाग।
बस कंडक्टर तीव्र स्वर में सवारियों को बुला रहा था। सुबह के साढ़े दस का वक़्त , सूरज में आज तपिश नही थी। पिछली ही रात ओले और थोड़ी बारिश सारे वातारवण में नूतनता भर गई थी, कारण भी बहुत उचित था ,त्रैलोक्य स्वामी का पाणिग्रहण था, सारी धरा का अभिषेक कर इंद्र ने अपना आभार व्यक्त किया था। पवन देव भी आज बहुत ही सहारे से वातावरण में टहल रहे थे, बसंत का मौसम ऊपर से आम की बौरें ,महुआ ,मधुमालती ये सभी वातारवण को अपनी अनुपम सुंगंध से सुवासित कर रहीं थीं। सारी धरा मंडप की भांति सजी हुई थी, वो बैठा इस नव व्याहता प्रकृत के यौवन को देख रहा था। प्रकृति माँ और उसके बीच मूक संवाद चल रहा था, कोई अतिशयोक्ति नहीं,प्रकृत माँ अक्सर यही करती है। जब भी वो थोड़ा विचलित होता या बहुत प्रसन्न होता तो माँ सारा वात्सल्य और सौंदर्य लेकर उसके सामने आ जाती थी फिर कभी हवा बन के उसे दुलार करती कभी ख़ुशबू बन के उसके उदास चेहरे में कौतूहल भरती और इस तरह वह अपने बेटे को ठीक कर ही देतीं थीँ अक्सर, आज मसला कुछ और था आज उनका पुत्र परेशान था थोड़ा नही बहुत , क्यों कि आज उसे बाह्य जगत से कोई शिकायत नही थी, वह आज अपनी माँ से ही नाराज था।
बस स्टैंड के कर्कश शोर में भी वह शांत अचल शिला की भांति बैठा था। कन्डक्टर के तीव्र उद्द्घोष ने उसकी तंद्रा तोड़ी और वह हड़बड़ा कर बस में जाकर बैठ गया। बस में बैठते ही वापस उसी चिंतन सागर में प्रवेश कर गया , बस भर चुकी थी कहीं भी जगह शेष नही थी, ठीक उसके मस्तिष्क की तरह जो अनेक विचारों से लदा हुआ था उनकी तादाद इतनी थी कि उसे घुटन होने लगी ,गहरी सांस लेते हुए उसने बाहर खिड़की की ओर झांकने की कोशिश की , सारे पेड़, पौधे ,इमारतें रास्ते पीछे की ओर भाग रहे थे बस चल चुकी थी…..
जारी है……..
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