मैं एक मरीचिका हूँ।
(मरीचिका – Mirage)
यह देह जो तुम्हे दिख रहा है ना?
इसकी नर्म-सिलवटों में छिपा भस्म है।
(नर्म-सिलवटों – Soft Creases)
मेरे विचार जो तुम्हें अचंभित करते हैं,
(अचंभित – To amaze)
निरंतर बहते ज्ञान-धारा में
(निरंतर – Perennial)
जो तुम रह-रह गोते लगाते हो ना?
(गोते लगाना – To dive)
उनका श्रोत भी मुझमें नहीं है।
(श्रोत – Source)
मेरी पसंद-नापसंद,
भावना-अनुभव।
कभी गायत्री-सी सफ़ेद स्पष्टता,
(स्पष्टता – Clarity)
तो कभी धूमावती का धूसर द्वन्द।
(धूसर – Greyish)
(द्वन्द – Duality/Dilemma)
अरे पगले! ये सब छलावा है।
(छलावा – Illusion)
मैं माया हूँ।
और वो?
मायावी।
उन्हीं के विराट ऐश्वर्य का
मैं एक छोटा-सा अंश हूँ।
आईने में पड़ता उनका प्रतिबिम्ब।
(प्रतिबिम्ब – reflection)
बद्रिका में जो जल रहा है ना आजकल ?
उस आदि-अग्नि की तपिश महादेवी हैं।
(आदि-अग्नि – Eternal Fire)
(तपिश – Warmth)
मैं उसी अग्नि से उठता धूआँ हूँ।
मणिकर्णिका की जलती चिता हूँ।
(मणिकर्णिका – Maha-Shamshaan of Kashi)
मेरी चमड़ी गलकर बह जायेगी।
ये चेहरा फटकर कंकाल होगा।
फिर हड्डियाँ जलकर हवा हो जायेंगी।
शेष बचेंगी अस्थियाँ
राख की बाहों में लिपटी हुई–
जैसे एक माँ ने
भूखे बच्चे को
सीने से बहता अमृत पिलाने के लिए
अपने आँचल में भर लिया हो।
वो जो राख से सनी अस्थियाँ है ना?
वही मेरा वास्तविक स्वरुप है–
(वास्तविक – Real)
वही इस मरीचिका का सच है–
वही राख माधव हैं।
ले आओ चक्र मेरे हरि का।
और एक सीध में,
कर दो बीच से
इस देह दो टुकड़े।
जैसे कृष्ण के कहने पर
भीम ने काटा था
जरासंध को।
देह के दोनों भाग
जब दो तरफ गिरें,
तब झाँकना उनकी आँखों में,
जो मेरे भीतर से निकलें।
पर झाँकना तब ही,
जो तुम धारण कर पाओ
उनका तेज
अपनी नग्न आँखों में।
(नग्न- naked)
मैं मात्र आवरण हूँ। खोल।
(आवरण – Cover)
(खोल – Shell)
आदि-मायावी की माया हूँ।
(आदि-मायावी – Primordial illusionist)
परम-छलिया का छल।
मेरा ना कोई अस्तित्व है ना औकात।
वो बद्रिका में बैठकर खेल रहे हैं।
मैं उनका खेल हूँ।
कमल की पंखुरियों को देखा है तुमने?
मखमली। गुलाबी।
प्रकृति ने प्रभु की उँगलियों से
पंखुरियों को बनाया है।
उनकी वही उंगलियाँ
जब पियानो पर नाचती हैं ना?
तो सृष्टि में नाद उत्पन्न होता है।
वो नाद महादेवी हैं।
मैं उसी नाद में झंकृत
छोटा-सा स्पंदन हूँ।
जो उसी से निकलकर
उसी में समा जाता है।
इससे अधिक मेरी क्या पहचान!
तो जो तुम्हे लगता है ना
कि तुम्हे मुझसे प्रेम है?
पगले! मैं खोल हूँ।
आवरण हूँ अपने प्रभु का।
माया। छलावा। साँप की केंचुली।
(साँप की केंचुली – Snake’s Slough)
मैं तो मरीचिका हूँ ना… मैं हूँ ही कहाँ!
प्रेम तुम्हे उनसे हो रहा है,
जो प्रेम के श्रोत हैं।
जो स्वयं प्रेम हैं।
वो चित्र। मैं उस चित्र का रेखाक्रम।
(रेखाक्रम – Outline of a sketch/painting)
राग भैरव वो। मैं बस स्वर-संगम।
(स्वर-संगम – Confluence of notes)
वो अनंत। मैं अंत का भ्रम।
(अनंत – Limitless/Eternal)
(अंत का भ्रम- Illusion of being limited)
छलिया का छल– रहस्यमय!
भक्त-भगवन् का अभिनय क्या!
मैं तुममे, नाथ!
इससे बढ़कर मेरा परिचय क्या!
#गुरूवर के चरण कमलों में सप्रेम और आदर सहित समर्पित…ये कविता भी और मैं भी।
PS. अंत का भ्रम or Illusion of being limited refers to the Kunchakas and Avidya that helps the Supreme in maintaining the Creation). To read more about Kunchakas and Avidya and how this creation works, try this book recommended by Swamiji Himself.
PC – Lakshmi Ambady ma’am (https://twitter.com/layasthana/status/1058989359075012608?)
Thank you for reading 🙂 Jai Shri Hari
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