हरे कृष्ण महामंत्र एक असाधारण मंत्र है। अखिल ब्रह्माण्ड अधिपति श्री महाविष्णु ने अपने पूर्ण अवतार वासुदेव श्रीकृष्ण के रूप में अर्जुन से महाभारत के रण-क्षेत्र में कहा था,

“कौन्तेय! जो भक्त मुझे मेरे तत्त्व से जान लेता है, उसके लिये ना मैं अदृश्य हूँ ना वो मेरे लिये अदृश्य है।”

महामंत्र कहे जाने वाले इस मंत्र को वास्तव में क्यों एसी उपाधि प्राप्त हुई? कहते हैं ईश्वर-तत्त्व ध्वनि-रूप में मंत्र में समाहित होता है। अगर इस मंत्र का तत्त्व समझ आ जाये तो महाविष्णु का तत्त्व स्वयं आत्मसात हो जायेगा।

मेरे गुरूदेव के श्रीचरणो में मुझे जो तत्त्वज्ञान प्राप्त हुआ, मात्र वही मेरे इस अवलोकन का आधार है। अर्थात, मैंने कभी शास्त्रों का अध्ययन नहीं किया। कारणवश, मेरा परिपेक्ष्य कितना शास्त्र-सम्मत है मुझे इसका ज्ञान नहीं। आपसे अनुरोध है कि इसे एक व्यक्तिगत दृष्टिकोण ही समझें। मुझ अधम में इतना बुद्धिबल नहीं है कि महाविष्णु को दाने-भर भी समझ पाऊँ। उपर सें उनके तत्त्व के बारे में लिखना!

कबि न होउँ नहिं बचन प्रबीनू। सकल कला सब बिद्या हीनू।।

कबि न होउँ नहिं चतुर कहावउँ। मति अनुरूप राम गुन गावउँ॥

कहँ रघुपति के चरित अपारा। कहँ मति मोरि निरत संसारा॥

मैं न तो कवि हूँ, न वाक्य रचना में ही कुशल हूँ, मैं तो सब कलाओं तथा सब विद्याओं से रहित हूँ। ना कवि के समान दक्षता और भाव है, ना बुद्धि से पारंगत ही हूँ। ये मंद मति जितनी समझ पाती है उस अनुसार प्रभु के गुण गाती है। कहाँ तो मेरे नारायण के अपार चरित्र, और कहाँ संसार में आसक्त मेरी अधम बुद्धि !

श्रीगुरू महाराज के चरणकमलों से लिपटकर महामंत्र का तत्त्वज्ञान लिख रही हूँ।

 

हरे कृष्ण। कृष्ण कौन है?
जो आकर्षण की पराकाष्ठा हो, परम सम्मोहनकारी हो, वो कृष्ण है। शाब्दिक अर्थ तो सबको ज्ञात होगा। परंतु मेरे गुरूदेव कृष्ण का गूढ़ अर्थ बताते हैं,

“जो हर कर्षणा से परे हो, वो कृष्ण है!”

कर्षणा अर्थात बाह्य जगत का आकर्षण। यह सम्पूर्ण संसार तीन गुणों से निर्मित है, सत्त्व, रजस और तमस। कुछ भी नहीं है जो इन तीन गुणो में ना आये। जो हर कर्षणा से परे हो, वो इन्द्रियों का अधिपति हो तीनों गुणों से परे हो जाता है। गुणातीत हो शिव हो जाता है। यही आत्मा का वास्तविक स्वरूप है।

उपनिषदों के महावाक्य “अहं ब्रह्मास्मि” “तत् त्वं असि” “अयं आत्मा ब्रह्म” सब इसी गुणातीत स्थति की ओर इंगित करती करती है। यही हर योग, भक्ति, मंत्र, क्रिया की सर्वोच्च सिद्धि है। इस कारण नारायण को पुरूषसूक्त में “योगिनां परमं सिद्धिम्” अर्थात् योगियों को प्राप्त होने वाली परम सिद्धि कहा गया है।

कृष्ण वो जो स्वयं हर कर्षणा से मुक्त हो। कृष्ण वो जो अपने भक्त को हर कर्षणा से मुक्त कर दे।

 

हरे राम। राम क्या है?

रमन्ते इति रामः।

जो हर कण में, रोम-रोम में वास करता है, और सम्पूर्ण सृष्टि जिस तत्त्व में निवास करती है, वो तत्त्व ‘राम’ है।

परमप्रिय नारायण अर्जुन ये कहते हैं,

“ईश्वरः सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
तेषां एव अनुकम्पा अर्थम् अहं अज्ञान जम् तमः।
नाशयामि आत्म भावस्थः ज्ञान दीपेन भास्वता।।”

प्रत्येक जीव के चिदाकाश में आत्मा स्वरूप में जो स्थित है, वही इश्वर है। जिनपर मैं विशेष कृपा करता हूँ, उनके हृदय में जाकर स्थित हो जाता हूँ। वहाँ पर मैं एक सूर्य की भांति उसके प्रकाशमय चेतना से उसके तमस का, उसके अँधकार का, उसकी तमोगुणी प्रवृति का, उसकी वासनाओं का, उसके विकारों का, उसके कुविचारों नाश कर देता हूँ। हृदय-आकाश में रहने वाला यही ज्योतिपुंज ‘राम’ है।

काशी में देह त्याग करने वालों को शिव तारक मंत्र सुनाते है जो अखंड मोक्षकारक है और आत्मा को जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त कर परमबिन्दु में विलीन कर देती है। जानते हैं क्या है वो तारक मंत्र? “राम” !

जो स्वयं जीवन-मरण के चक्र से चिर-मुक्त और शाश्वत है वो ‘राम’ है। जो अपने भक्त को जीवन-मरण के चक्र से चिर-मुक्त और शाश्वत कर दे, वो ‘राम’ है।

 

शास्त्रो में इस मंत्र में ‘राम’ शब्द का प्रयोग पहले हुआ है और ‘कृष्ण’ शब्द का बाद में।

कृष्ण में आकर्षण की ऊर्जा थी। कृष्ण साकार ब्रह्म हैं।
राम में मोक्ष की ऊर्जा है। राम निराकार ब्रह्म हैं।

और एक योगी-साधक-भक्त की यात्रा भी साकार (उसका देह) से निराकार (उसकी आत्मा) तक की ही होती है, है ना? अपने व्यक्तिगत परिधि को लाँघकर ब्रह्मसत्ता में समा जाने की यात्रा। शायद इस कारण ही नारायण अपने भक्तावतार, श्री चैतन्य महाप्रभु के रूप में शास्त्रोक्त मंत्र को परिवर्तित कर ‘कृष्ण’ के बाद ‘राम’ कर दिया।

ये यात्रा कृष्ण से राम तक की यात्रा है। ‘स्व’ से ‘सर्वस्व’, व्यष्टि से समष्टि होने की यात्रा।

 

मेरे गुरूदेव के अनुसार ‘हरे’ शब्द ‘हर’ से आया है जो शिव की संज्ञा है। भगवान आशुतोष की ऊर्जा भी इस मंत्र में समाहित है। एक साधक, एक भक्त का जीवन सरल नहीं होता। जन्म-जन्मांतरों का कर्मफल एक जन्म में भोगना होता है। यहाँ शिव की ऊर्जा योगबल देती है इस यात्रा को पू्र्ण करने के लिये। हर पड़ाव पर। इसलिए महामंत्र के हर पड़ाव पर भी ‘हर’ हैं – ‘कृष्ण’ से ‘राम’ तक की यात्रा दुष्कर है इसलिए शिव की योगिक ऊर्जा पूरे मंत्र पर बिछी हुई है – हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे।

 

हे सर्वोच्च आकर्षण के सम्राट, मुझें अपने ही समान हर कर्षणा से परे ले जायें। मैं जीवन पर्यंत आपकी होकर, आप ही की तरह, गुणत्रय में रहकर भी उनसे निर्लिप्त रहूँ। मृत्यु के उपरांत परममुक्ति स्वरूप आपके श्रीपद की प्राप्ति करूँ।

हरे कृष्ण, हरे कृष्ण, कृष्ण कृष्ण, हरे हरे। हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे!

 

#उन्हीं का दिया सब, उन्हीं को अर्पित, गुरुदेव के श्री चरणों में सप्रेम समर्पित।