“ज़िदगी रोलर कोस्टर”भाग 1
आगे….
मै कोशिश में रहता हूँ की दिन में कम से कम दो वक्त माँ के दर्शन कर ही लूं । माँ (सॉंझस्वरूप) को मैं देखते हुए कुर्सी में बैठा था ,सांझ के बीतने के साथ ही सारा मंज़र बंजर सा हो गया, क्षितिज में फैली लालिमा की जगह बिजली की चकाचौंध ने ले लिया ऊँची-ऊँची इमारतों में जलती लाइटे। दूर-दूर तक अँधेरे का साम्राज्य पसर चुका था,उसमे जलती बिल्डिंग्स की लाइटे अपना अस्तित्व तलाश रही थी ,लाल ,पीली ,नीली कई तरह की लाइटें मुझे चारो और से घेरे हुए थी। मै जहा बैठा था वही पास में एक कबूतर का घोसला है उसमे शायद कबूतरी बैठी हुई हुई थी अंडो के साथ, उसकी नजर भी झिलमिलाती इन लाइटों के समुन्दर में गोते लगा रही थी, वो भी शायद डरी हुई इस कौतुहल को देख रही थी। मेरी और उसकी मनोदशा कमोवेश एक जैसी थी ,वो पक्षी होकर मज़बूरी में इस ईमारती वन में रह रही थी और मैं इंसान होकर मजबूरी में! दोनों ही अगली साँझ(प्रभात) के इंतजार में हैं।
मोबाइल टावर की जलती लाल-लाल लाइटे मुझे किसी दैत्य की आँखों से कम नहीं लग रहीं थीं, कर्कश शोर, अनथक भागता इंसानी जीवन मै किसी चक्रव्यूह में फंसा हुआ महसूस कर रहा था ,अभी कुछ देर पहले माँ थी यहां कितना मनोरम दृश्य था अहा …..! बड़ी बड़ी इमारतों के लपलपाते रोशनदान और शेष जगह अँधेरा ये सब मुझे निगल जाने को आतुर थे। घबराहट में मैंने अपना सर उपर आसमान की ओर कर लिया लाइटें तो वहा भी थी पर शायद ज्यादा सुखकर , कम से कम उनमे शीतलता तो ही । मैं बहुत देर तक चांद तारों से बतियाता रहा फिर मेरा ध्यान वापस क्षितिज में गया तो कॉन्क्रीट पत्थर के ये भेड़िये मुझ पर झपट्टा मरने के लिए तैयार खड़े थे, मेंरा मन किसी सहमी हिरनी सा इधर उधर भागता। आखिर में मैंने नीचे जाना ही सुरक्षित समझा । नीचे आके मैंने माँ अगले दर्शन(प्रभात) की प्रतीक्षा करने लगा। माँ आती हैं सुबह-शाम और मैं भी सुबह शाम ही घर से निकलता हूँ ये शहर मेरी तबियत का नहीं ,ये आवो-हवा मेरे ख्याल की नहीं प्रकृत माँ की हरी भरी गोद ही मेरा आश्रय है मेरा शहर है। मेरी प्राकृत ही माँ है ,मेरी माँ ही मेरा आश्रय।
Thanks for reading 👍💐💐
Jay shri hari🌼🌼💐🙏
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