जय श्री हरि सभी को🌺🌺🙇

मैं कला और कलाकार में चिंतन कर रहा था ,ये कुछ मेरे दिमाग से निकल के आया है, आप सभी का विचार जानना चाहूंगा।

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कलाकार केवल कला  से प्रेम करता है। इस क्रम में उसे कभी अपने माशूक से मोहब्बत होती है तो कभी किसी ख़्याल से या फिर कभी अपनी तन्हाई से, हर मूरत में उसे फ़न का साया अपनी ओर खींचता है और वो अपनी पूरी हस्ती उस प्रेरणा की ओर झोंक देता है। किसी फनकार का फ़न उसके दिल के कैनवास मे उठी बेहद मासूम तरंगों की चित्रकारी है। उस कैनवास में कभी किसी औरत/पुरूष की भावना  अपनी प्रेरणा के  रंग बिखेरती है, तो कभी झील ,झरने और फिजायें , कभी ग़ुलाबी मीठी सर्दी भी फ़नकार के दिल मे फ़न के रंग भर देती है। फ़न , चाहे वो वियोग सृंगार हो या संयोग का सृंगार हर लम्हे में फ़नकार अपनी कला को गढ़ता है ,उसकी रस माधुरी को पीता है और उसकी मदहोशी में रहता है।
अक्सर , शायर, संगीतकार और अन्य दूसरी विधा के फ़नकार की अपनी एक अलग-थलग दुनिया होती है, सब के साथ होते हुए भी वो अपनी दुनिया में फ़न के गुड्डे- गुड़ियों के साथ खेल रहा होता है। दरसल हर कलाकार हर वक़्त बराबर की तन्हाई और बराबर  अपने  प्रीतम के साथ होता है।  फ़नकार के साथ उसकी जीवंत कल्पना ही उसकी माशुका है ,उसका प्रेम है, या फिर उसका अपने ईश्वर के लिए अनुराग है। इन सब प्रक्रिया में केवल- और केवल कलाकार ही शरीक होता है ,बाकी सब ध्येय बनते हैं जिन पर फ़नकार अपने ध्यान को केंद्रित करता है। और मुझे तो लगता है किसी भी कला से नवाज़े इंसान को जितना सुकूँ अपनी कला के साथ होता है किसी और के साथ नही होता, ये संभव है कि उसके शरीर की थकन किसी के होने में खत्म होती हो, किसी की गोद मे उसे राहत की नींद आ जाय, लेकिन फिर भी बंद आंखों में वो केवल अपनी भावनाओं को ही जीता है। कई बार हो सकता है कि हमें मालूम ही न हो कि जो आनंद और स्थाई सुकूँ की अनुभूति हमें हो रही है वो दरसल हमारा ही अक्स है।
और एक विचित्र किंतु कुछ अंशो में सच बात ये है कि ,कला का उद्गार तभी होता है जब कलाकार के ध्येय की वस्तु उससे दूर हो, वह दूरी उत्प्रेरणा बनती है, कला के बाहर आने की और एकबारगी संयोग के उपरांत वह कुछ वक्त के लिए ठहर सी जाती है। कला कभी चार दीवार में कैद नहीं हो सकती ,उसका स्वभाव ही स्वछंद आकाश में उड़ने का है, इसलिए अक्सर देखा गया है कि कोई भी असली फ़नकार किसी एक जगह नहीं रह सका , उसकी प्रार्थना की देहरी समयांतराल में बदलती रही है, इसमें वो व्यभिचारी या दोयम दर्जे का इंसान नहीं हो जाता। ये इसलिए कि, यही प्रकृति है हर कलाकार की।  यद्यपि ऐसा कहना कई लठैतों को अपना सर सौपना होगा ,पर ये सच बात है। कोई भी सुकून से इसपे चिंतन करे तो वो इसी नतीजे पे आएगा। इस बात पे चिंतन करते मुझे ये समझ आयी कि सारी कला , समस्त प्रेम और करुणा ,श्रद्धा का केंद्र हमारा हृदय ही है, हमारे चित्त की कई तहों के नीचे ये खज़ाना छुपा है, जिसने इससे सुगंध को ढूंढ लिया उसे नित्य आनंद का स्रोत मिल गया, और जो इसे बाहर ढूंढता रहा आनंद उसे भी आएगा लेकिन कब तक ? उधार में केवल सीमित धन मिलता है, खजाना नही😊!
कस्तूरी कुंडली बसे, मृग ढूंढे वन माहीं
ऐसे घट-घट राम हैं , दुनिया देखत नाहीं।
जय श्री हरि🌺🌺🕉️⚛️🙇