अनुभवी संत की वाणी में विशेष शक्ति होती है अनुभवी संत की वाणी गोली भरी हुई बंदूक के समान है जो आवाज के साथ साथ मार भी करती है ।

Recently i have started listening “Jeevan Ek Ghorakh Dhanda Hai” (स्वामी जी के विचार स्वामी जी की आवाज में) series on amazon audible narrated by swamiji. The introduction of this series read as :- “जीवन का आधारभूत सत्य क्या है ? हमारे साथ जो भी घटित हो रहा है ? वह क्या केवल हमारे पूर्व जन्म के कर्मों का परिणाम है या इसकी पृष्ठभूमि में कुछ और भी कार्यरत हैं ? जिंदगी में भावनाओं इच्छा और संस्कारों के भंवर से कैसे बाहर आए ?  ऐसी अनेक परेशानियों  के उत्तर ” (Taken from introduction given on audible)

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Given Below are some of the  excerpts  from the audio i have listened from series :-

  • जीवन वास्तव में ही गोरख धंधा है। समझना मुमकिन नहीं , जीना मुमकिन है । भिन्नता का नाम ही जीवन है । अपने जीवन से ऐसी आशा करना कि हमेशा एक सी परिस्थिति रहे, इससे बड़ी मूर्खता कोई नहीं क्योंकि नित्य प्रति , जीवन एक नई चीज लेकर प्रस्तुत होगा जिस दिन आपको लगेगा कि जीवन को मैं समझ गया , उसी दिन उसी घंटे में कुछ ऐसा होगा कि आप हिल जाओगे ।
  •  जीवन में जो जो घटित होता है उसके लिए जरूरी नहीं कि हम उत्तरदायी हो । जो हमारे साथ हो रहा है उसको हम कैसे ग्रहण करते है, कैसे धारण करते हैं , वह पूर्णत: हमारे ऊपर निर्भर है , उसमें किसी का कोई हाथ नहीं।
     मनुष्य का जीवन इच्छाओं का घर होता है। जब तक इच्छा है, तब तक मनुष्य में द्वंद चलता रहेगा। यदि वह पूर्ण हो जाये तो सुख मिलता है,  यदि वह पूर्ण ना हो तो दु:ख मिलता है। इससे नहीं भाग सकते । यह जो वैराग्य है, की इच्छा की पूर्ति पर बहुत सुख ना हो और इच्छा की अनापूर्ति पर दु:ख ना हो, यही अध्यात्म पथ पर उन्नति का लक्षण होता है
  • मनुष्य का जीवन केवल इच्छाओं का घर नहीं है, मनुष्य का जीवन दु:खों का घर भी है। जिस प्रकार एक पक्षी घोसले से बाहर जाकर कितना ही सुख क्यों न ले ले कितना ही बाहर चला जाए, वापस उसको अपने घोसले में ही आना है ।इसी को ऋषियो ने मुनियों ने संसार की संज्ञा दी कि यही इसका सार है, निरंतर जीवन में एक द्वंद चलता रहेगा ।
  •  दु:ख से निकलने की युक्ति क्या है। सरल व्यवहार, सरल जीवन और चरित्र का बल, मनुष्य के यह तीन ऐसे आधार है, जिस पर के आप विराजमान हो, तो आप कूटस्थ हो जाते हो। यदि यह तीनो है, तो मनुष्य दुःख में प्रविष्ट नहीं करेगा ,स्थितप्रज्ञ हो जायेगा ।  यदि आपको स्वयं पर ही भरोसा नहीं तो कोई भी आप पर कैसे भरोसा करें?
  • बुद्ध  ने महान सत्य बताएं:- जीवन दु:ख है । संसार जो है-दु:ख है, ये एक महान सत्य है कोई इसका विपरीत नहीं ढूंढ सकता । जो इस संसार में सुख प्राप्त होंगे , वह भी क्षणिक प्राप्त होंगे।  दु:ख का कारण क्या है ? दु:ख का कारण है आसक्ति ! इस दु:ख को रोका जा सकता है, शास्त्रों ने कहा है –अगर कारण को रोक देंगे , तो जो कारण से जो फल मिल रहा है, वह स्वत: ही रुक जाएगा। यदि मैं इतना ज्ञान रख लूं मन मे ,कि सब सुख मेरे स्थाई नहीं रह सकते- तो मन को अपार एक शांति की प्रतीति होती है ।  
  • बुध्द के अनुसार और शास्त्रों के अनुसार- निर्वाण ही इस दुख का निवारण कर सकता है। निर्वाण अर्थात वह लौ जो बुझ रही है। अब इच्छा कि अग्नि प्रज्वलित नहीं होगी। यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता। योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मनः(Chapter 6/19 Gita) जिस प्रकार दीपक की लौ हिलती नहीं ऐसी जगह पर, जहां वायु रहित वातावरण हो , ठीक उसी प्रकार इच्छा रहित वातावरण में ,मनुष्य का मन विचलित नहीं होता । 

  •  तब क्या किया जाए ,जब दु:ख में आ गया है मनुष्य ?  ,मान लीजिए परीक्षा की तैयारी नहीं हुई और परीक्षा सर पर आ पड़ी
     गिरने में कभी समय नहीं लगता , क्रोध की आंधी जब भी आती है ,जब काम का वेग उत्पन्न होता है मनुष्य में । जब अहंकार जागृत होता है, जब मनुष्य का पतन होता है, जिस किसी भी भावना से ,उस में समय नहीं लगता ।
     गिरने में व्यक्ति को दुख नहीं होता , जब वह गिर जाता है, तब चोट लगती है ,दु:ख गिरने में नहीं है ,गिरने के बाद होता है। किसी भी कर्म का प्रभाव कर्म करते हुए नहीं मिलता, कर्म के बाद मिलता है ।
     तो अब दुख आ गया है तो अब क्या करें ?

  Solution  :-

1 .) जितनी श्रेष्ठ तैयारी पहले होगी, उतनी तैयारी अब नहीं होगी। जितनी श्रेष्ठ तैयारी पहले होगी सरलता कि, उतनी कम सम्भावना होगी, इस दुःख के आने कि।
 पर यदि आ गया है तो उसका एक ही मूल मंत्र है- एक तो है ज्ञान -उसमें कुछ करना नहीं ,उसमें बस समझ है कि ,यह दुख आया है, पर कुछ समय बाद चला जाएगा।
 परंतु उससे भी बढ़कर है, वह कर्म जो दुखी हृदय को करना चाहिए और जो कि है सृजनात्मक कर्म।
 जब भी आप कुछ सृजनात्मक करेंगे ,तो आप अपने आप सकारात्मक हो जाएंगे। जब आप कुछ बनाने के लिए ,अपने मन को, अपनी उर्जा को, अपनी चेतना को ,अपने चित्त को, अपने मस्तिष्क को ,शरीर को, अपनी भावनाओं को ,अपने ज्ञान को, कुछ बनाने में लगा लेंगे; तो यह जो नकारात्मक भावनाएं हैं ,द्वेष की, क्लेश की ,घृणा की, यह तोड़ने के लिए बनी है।
 जब आपका ध्यान बनाने की और चलेगा, तो तोड़ने वाला दुख अपने आप बहुत लघु हो जाएगा।
 हमारे प्रोफेसर शर्मा जो इंग्लिश के टीचर थे , कहते थे-बेटा कभी भी खर्चा कम मत करना क्योंकि यह रोना कि ; चीजें महंगे हो गई, यह तो जिंदगी भर चलेगा, धरना देने से यह तो है नहीं कि तेल घी की चीजें सस्ती हो जाएगी । चीज प्रतिदिन और महंगी होगी, तो इस पर कभी चिंतन मत करना ,कि मैं खर्चा कम कैसे करूं ? अपनी सारी उर्जा इसमें लगाना कि मैं कमाई को कैसे बढाउ?
 जो कमाई को बढ़ाएगा, उसका खर्चा अपने आप कम हो जाएगा। जो बनाने में अपनी ऊर्जा लगाएगा ,तोड़ने वाली भावनाएं अपने आप लघु हो जाएगी; अपने आप छोटी हो जाएगी। यह भी एक आदत की बात होती है, कि खुश रहना है या दुखी रहना है।
तो जब दुख आ जाए, तो अपने ज्ञान के बाण को निकालकर उसका भेदन करना होता है। वह ज्ञान किस काम का जो तब निकाला जब सब अच्छा है?
 जब दुख आ जाए तो कुछ न कुछ तैयारी पहले से होनी चाहिए जीवन में कुछ तो ऐसा हो जो आपकी उर्जा को सर्जनात्मक कार्य में लगाएं।

 2 .) अपना ध्यान बटाना आना चाहिए।
 सबसे भारी भूल जो मनुष्य कर सकता है दुख के पलों में ,वह यह है कि अपने मन की सब बातों को सच्चा मान ले। उस समय मन आपके सामने ऐसी ऐसी बातें प्रस्तुत करेगा तो आपको ऐसा लगेगा कि वाकई आपके समान दीन हीन कोई है नहीं इस संसार में।
 क्योंकि मन दुखी है और दुखी मन की बात कभी नहीं सुननी चाहिए। और सुखी मन की बात भी कभी नहीं सुननी चाहिए। बहुत दुखी हो तो कोई आघात मत करना और बहुत सुखी हो तो कोई वायदा मत करना।
 खुश जब होता है मनुष्य तो कहता है मैं वह कर लूंगा, यह कर लूंगा।  बाद में जो वास्तविकता सामने आती है, तो सोचते है पैसे निकालूंगा कहां से?
दोनों ही समय में अर्थात सुख और दुख में मनुष्य को थोड़ा प्रतीक्षा या अंतराल रख लेना चाहिए।
 उस प्रतीक्षा के बाद जो निर्णय ले वह समता का निर्णय होगा।  तो जब मन दुखी हो ;तो समय परम आवश्यक होता है कि व्यक्ति अपनी अच्छाई की ओर देख सके; जीवन में जो अच्छा घटित हो रहा है; उसकी और देख सके।
 कहीं ऐसी जगह दृष्टि लगा सके जहां से उसको सुख की प्राप्ति हो जहां से एक सृजनात्मक ऊर्जा आए सकारात्मक ऊर्जा आए, नहीं तो संभव नहीं दुख से निकलना।
जो संस्कार है ,यह तब देना होता है ,जब यह मन ठीक है ,फिर यह तब काम आएगा। जब मन ठीक नहीं होता, सर दर्द हो रहा है अगर, तो पहले से दवा लेकर रखे, तो उस समय ले सकता है मनुष्य।
दुख आ गया है अगर जीवन में ,तो मन को ऐसे काम में लगा देना चाहिए की जिससे कुछ बन रहा हो।  एक ऐसी अद्भुत भावना होती है दुःख कि, दुख में मनुष्य अपना भी नुकसान करता और दूसरे का भी। राग में द्वेष में , हो सकता है अपना लाभ करें दूसरे का नुकसान करें। परंतु मनुष्य जब विषाद ग्रस्त होता है तो मनुष्य अपने भी नुकसान करता है अपने आप को भी क्षति पहुंचाता है और दूसरे को भी।
 बड़ा सरल सा नियम है जीवन का ,आपको अगर मीठा चाहिए ,तो जो भी बना रहे हैं उसमें मीठा डालना होगा ना। उसमें गुड डालेंगे चीनी डालेंगे कुछ मीठा ही डालेंगे तो ही वह जो पदार्थ है वह व्यंजन मीठा होगा। यदि मैं कुछ मीठा पाने की आकांक्षा रखता हूं और अगर मैं उसमें नमक डालूंगा तो क्या वह मीठा होगा? नहीं !
मीठे पदार्थ में एक चुटकी नमक डाल दे तो और मीठा हो जाता है वह नमक मीठे को फैला देता है, तो थोड़ा सा दुख तो चाहिए जीवन में । जिसके जीवन में दु:ख ना रहे तो उसके तो जीवन में एक ही चीज बचेगी और वो है दु:ख।
 जिसके जीवन में कुछ चुनौती ना रहे समस्या ना रहे, जिसका निदान निकालना हो या कोई कार्य करने के लिए प्रयोजन ना रहे, वह सबसे अधिक दु:खी होगा मनुष्य जीवन में!
 इसलिए कुछ-कुछ करते रहना चाहिए। एक मूढ व्यक्ति का संघर्ष यही होता है , नमक डाल रहा है और मीठे की आकांक्षा रखता है। जो जो भी जीवन में आपको चाहिए ,वैसा वैसा कर्म करना आवश्यक हि नहीं अनिवार्य है ।  तो जो जीवन से आपको प्राप्त हो रहा है, और रुचिकर नहीं है ,तो उस समय अपने आप को बैठ कर मन में यही बोलना है , कि क्या मैं जो कर रहा हूं , वह क्या उचित है जो मैं कर रहा हूं ? वह क्या मुझे इस पथ पर ले जा रहा है आगे, या मेरा कर्म जो है, वह मेरी इच्छा के विरोध में है, तो जैसा हमको फल चाहिए हमारा कर्म वैसा ही होना चाहिए।
 मन में जो व्यक्ति एक फकीर की प्रवृत्ति रख ले वह व्यक्ति दुखी बहुत कम होगा। कम से कम अपने दुख से दुखी नहीं होगा और यह स्वयम में यह बहुत बड़ी बात है।

आग को खेल पतंगों ने समझ रखा है। सब को अंजाम का डर हो, यह जरूरी तो नहीं।।

नींद तो दर्द के बिस्तर पर भी आ सकती है। उनके आगोश में सर हो ,यह जरूरी तो नहीं।।

सबकी नजरों में हो साकी यह जरूरी तो है , मगर सब पर साकी की नजर हो यह जरूरी तो नहीं।

Reference :- Part -7 

  • Dedicated To OS.ME  Family 
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