।।जय श्री हरि।।
आप सभी को मेरा प्रणाम।
विचार किया क्या लिखूं, कुछ समझ नहीं आता कि लिखूं क्या, यह कैसी कशमकश है कि लिखने के लिए सोचना पड़ रहा है। क्या लिखना सोच कर होता है? हां कभी कभी सोचना भी पड़ता है लिखने से पहले। लेकिन कई बार तो शब्द हृदय रूपी अथाह समंदर से अपने आप लहरों की भांति बाहर स्वतः ही दिखाई पड़ जाते हैं।
तो वैसे ही आज मैं अमृता की पोस्ट पढ़ रहा था तो बहुत ही आनंद आया। वहां से ही कुछ पंक्तियां हमें याद आ गई। कहते हैं ना जब प्रेम होता है तो अपनी सुध ही नहीं रहती है। अपनी सुधि नहीं रहती है यही तो उस परम योग की स्थिति है जब आप अपने आप को भी भूल कर एकाकार हो जाए उस दिव्यता से। एकाकार होना ही तो मोक्ष है। अपनी शरीर की सुध को भूल जाना और अपने आप को भूलकर, अहंकार को भूलकर, हर एक बुरी वृत्तियों को भूलकर आप बस उस प्रेम की नदी में बहते बहते बहते प्रेम के सागर में डूब जाते हैं जिसका ना कोई आदि है ना अंत है। वहां केवल आप और आपके प्रेमी इष्ट विराजमान है।
वह पंक्तियां कुछ इस प्रकार से हैं यह मीरा बाई सा की पंक्तियां है जो वे अपने गिरधर गोपाल के लिए गा रही हैं:
लाली मेरे लाल की जित देखूं तित लाल।
लाली देखन मैं चली मैं भी हो गई लाल।।
जब मैं थी तब हरि नहीं, अब हरि है मैं नहीं।
प्रेम गली अति सांकरी या में दो ना समाहीं।।
मीरामाता कह रही हैं कि जो मेरे लाल गोपाल जी का रंग है हर जगह दिखाई दे रहा है। जो मैं गिरधर गोपाल के रंग को देखने जा रही हूं तो मैं भी उसी में रंग चुकी हूं। जब मैं थी तब हरि नहीं अब हरि हैं मैं नहीं। प्रेम की गली इतनी सांकरी है कि उसमें दो समा ही नहीं सकते हैं। आपको एक होकर ही चलना पड़ेगा। यह पंक्तियां याद आई तो हृदय बहुत ही शीतल हुआ तो सोचा आप सभी के साथ साझा करें। आप सभी अपने प्रियतम से प्रेम करते रहिए यही कहना है। अपनी वाणी को विराम देता हूं।
।।बोलो श्री हरि भगवान की जय।।
Comments & Discussion
12 COMMENTS
Please login to read members' comments and participate in the discussion.