भोजन इस संसार मे रह रहे सभी जीवों की प्रथम प्राथमिकता है। प्राची की बेला से शाम सांझ ढलने तक , सभी जीवधारी पेट भरने के लिये प्रयासरत रहते हैं। नन्हीं चींटी, कीट, पतंगों से लेकर समस्त जलचर ,खगचर(पक्षी) अनथक परिश्रम करते हैं ताकि वे क्षुधा देवी को भोग अर्पित कर सकें और रात को अपने नीड़(घर) मे निद्रा देवी की गोद मे आराम कर सकें। हम सब भी इन्ही जीवधारियों की तरह श्रम (मानसिक,शारीरिक) करते हैं ताकि रोटी,कपड़ा, मकान के निमित्त आवश्यक साधन जुटा सकें।

मेरा ये पोस्ट लिखने का मूल उद्देश्य ” भोजन के दुरुपयोग को रोकने” का और भोजन की यात्रा का है कि, कैसे वो आपकी थाली  तक पहुंचता है और फिर आपके जठराग्नि को शीतलता देता है।

आइये चलते है..

नवरात्रि के चमत्कारी दिवस आने को हैं, हर बार की तरह इस बार भी मैं नवरात्रि को घर ,अपने गांव आ गया। गांव में ये समय (मार्च-अप्रैल)  खेती और खलिहान का होता है , सारा गाँव फसलों की कटाई-मिजाई (harvesting and production of crops) में व्यस्त रहता है। पूर्व की अनेक जागी रातों और घंटो धूप में बिताने के तप के बाद पूर्णाहुति का समय होता है, जब फ़सल को खलिहान में जमाया जाता है। गांव में अक्सर किसानों के चेहरे का भाव देखिये जब उनसे पूछा जाए  कि, भैया कितनी है फसल इस बार? और वो सीना फुला के गर्व से पर दबी ज़बान में कहें की ज्यादा नही है इस बार। स्वाभिमान से भरी मुस्कान उनके सूखे होंठो को खिलखिलाने पे मजबूर कर देती हैं।

सौभाग्य से मेरी पृष्ठभूमि भी एक किसान परिवार से है, इसलिए खेत ,खलिहान, मिट्टी, फसल, गाय, बछड़े, और समस्त लोकसंस्कृति से मेरा गहरा नाता है, खेत के टेढ़े-मेढ़े रास्तों से मेट्रो सिटीज़ के आलीशान पार्क और शहरों की तंग गलियों तक मेरा सफर खास रहा है।

मेरी फसल खलिहान में आ चुकी थी, घर मे था इसलिए पिता जी मुझे भी साथ ले गए। आज वर्षों बाद मैं  खेत ,खलिहान और तमतमाती धूप में फसल की अगुआई में शामिल था। गांव में खेत या खलिहान में बॉस- एम्प्लॉई जैसा माहौल लगभग ही देखने को मिलता है, सब समता में साथ-साथ काम करते हैं । आज के समय ये समता दुर्लभ है ,मुझे याद है छुटपन में मैं अक्सर कटाई के समय खेतों में काम कर रहे मजदूरों के घर चला जाया करता था,उनके साथ अपने खेतों में घूमता और चूल्हे की सोंधी रोटी, नमक ,मिर्च, लहसुन ,धनिया की चटनी की दावत उड़ाया करता , न कोई जातिभेद ,न रंगभेद , मैं ये नही कह रहा कि गाँव में ये सब नही था ,पर इस सब के बाद भी अलगाव नही था। जातिभेद की दुर्दांत दानवी सोच के बाद भी गाँव मे उपनिषदों में वर्णित ‘ वसुधैव कुटुम्बकम’ का विचार कहीं न कहीं हमारे संस्कारों में जीवित था।

फसल की गहाई शुरू हुई गेहूँ निकलने लगा।कुछ मजदूर भाई उसे इकट्ठा कर बोरे में भर रहे थे, मैं ये सब बैठ कर ध्यान से देख रहा था।

अब बारी मेरी थी,

पिता जी ने कहा – जाओ मदद करो उनकी ।

मैं- हौ पिता जी।

धूप भी गजब की थी ,यद्यपि सारा काम मजदूर भाई ही कर रहे थे मैं असिस्टेंट ही था पर सूर्यदेव को इससे क्या फर्क पड़ता था वो तो अपनी कृपा में कोई कमी नहीं कर रहे थे। धूप, आंधी, और हल्की बारिश ने मुझे तर-बतर कर दिया। 2 घंटे की कड़ी मशक्कत के बाद वापस खाट में आ बैठे, भूसा, मिट्टी ,और पसीने से अभिषेक हुआ। 

आज मुझे एक-एक दाने की कीमत समझ मे आयी। बैठे-बैठे मेरे मन मे आया , इतनी मेहनत और हम …कितना खाना बर्बाद कर देते हैं न जाने कितने है जिन्हें ये अन्न नसीब ही नही होता।

कितने परिश्रम के बाद ये खाना थाली में सजता है।

उस दिन भोजन सच मे यज्ञ की भांति हुआ जैसा स्वामी जी कहते हैं और निद्रा देवी ने जो लोरी सुनाई अहा!

 Do Respect to our farmer’s ,respect the food, as swami say’s ” this body is nothing but food, and food is god itself” 

Thanks for reading 😊

Jay shri hari🌹🌹🌼🌼

Jay swami ji ki🌹🌹❤❤❤❤🙏🙏