Dearest Family, Happiest Narayan’s Birthday as Rama!❤️ Thank you for all the love that you showered on “मेरी अम्मा” . I am all drenched! This blog is a continuation. You can read मेरी अम्मा here. 😊😊
मुझे हमेशा लगता था कि अगर देवी ही आदि और पराविद्या है तो मैं क्यों इन स्कूल और कॉलेज की किताबों में अपना सर फोड़ रही हूँ! Direct वेद-भगवत गीता-उपनिषद्-तंत्र वगैरह पढ़ के ख़तम करते ना प्रपंच। क्या हो अगर Physics और Metaphysics में युद्ध हो जाए? स्कूल की किताबें अगर भगवत गीता को pencil और pen फेंक- फेंककर मारें तो? कौन जीतेगा? चलिए देख लेते हैं। School Books vs. ब्रह्म-विद्या। 😉😉
Here is the story I was talking about. It’s an excerpt from Sri Sri Ramakrishna Kathamrita, the original Bangla version. I guess the English version is more popular, The Gospel of Sri Ramakrishna. This teeny tiny excerpt contained beautiful piece of Divine Wisdom straight from the Master’s mouth. I could have just copied the Hindi version but translating it has been my meditation on tattva. Hence 🙂 . There might be subsequent parts as the excerpt is a bit long and I don’t wish to bore you with a lonnnngggggggg blog 🙂 Enjoy!
“हमारे गुरुदेव लाल रंग के border वाली सफ़ेद धोती पहनते हैं; तन पर कपड़ा डालते हैं और तो और जूते भी पहनते हैं! तखत के ऊपर बिछौना लगा के सोते हैं। यहाँ तक की मच्छरदानी भी टांगकर सोते हैं।”
विद्यासागर चकित हो गए सुनकर।
“यह किस तरह के ‘परमहंस’ हुए आप लोगों के? क्या यह कहना चाहते हो कि बाबाओं जैसा कुछ स्वांग-दिखावा भी नहीं इनमें?” विद्यासागर ने पूछा।
महेंद्र नाथ गुप्ता, जिन्हें बड़े ही आदर और सस्नेह लोग श्री ‘म’ कहते थें, उन्होनें कहा,
“जी नहीं। रानी राशमणि की कालीबाड़ी के पुजारी हैं और अहर्निष भगवत-चिंतन में लीन रहते हैं।”
विद्यासागर ठहाके लगा के हँस पड़ें।
“अच्छा-अच्छा! उनको ले आइयेगा एकदिन। जब इतना गुणगान गा ही रहे हैं तो हम भी देखते हैं कौन आबा-बाबा आ गयें ये!”
वहाँ श्री रामकृष्ण ‘ठाकुर’ की कई दिन से इच्छा थी कि ‘सागर’ के दर्शन को जाएंगे, ‘विद्या के सागर’। ऐसा संयोग बना कि अब सागर भी ठाकुर के दर्शन करने को आतुर थे।
जब श्री ‘म’ ने ठाकुर को यह संवाद दिया तो भोलेपन की मूरत, ठाकुर, के हर्ष का ठिकाना ना रहा।
“तो फिर कब चलेंगे आप?” श्री ‘म’ ने ठाकुर से पूछा।
“आज-कल के भीतर ही जा सकते हैं?” ठाकुर ने ध्यानमग्न कंठ से कहा,
“ऐसे ही हर किसी दिन तो ‘सागर’ के दर्शन नहीं मिलते ना? ‘सागर’ के दर्शन को हम इस शनिवार ही जाएंगे। एकदम शाम के चार बजे। उस दिन श्रावण मास के कृष्णपक्ष की षष्ठी है। अहा! बहुत ही शुभ दिन है! “
साल था 1882। और उस साल का एक दिन। विद्यासागर जी की उम्र 62 होने को थी। रामकृष्ण 46 के थे। ‘सागर’ तब कलकत्ता के बादर बागान में रहते थें। शाम के चार बजने में ठीक दो मिनट बाकी थें कि तभी एक घोड़ा-गाड़ी आकर रुकी उनके घर के पास। गाड़ी से उतरें भवनाथ, महेन्द्रनाथ (श्री ‘म’), हाजरा और ठाकुर रामकृष्ण परमहंस स्वयं। उनके घर के भीतर प्रवेश करते ही ठाकुर की आँखो में मानो एक ठंडक-सी पड़ गयी। कितने खूबसूरत फूलें से भरे वृक्ष! मानो स्वयं से भी अनजान एक अजीब-सी बेहोशी में बोल पड़ें ठाकुर,
“अहा! विद्यासागर का मन बड़ा ही नरम है!”
सब सीढ़ियों से दूसरे मंज़िल पर पहुँचे। उत्तर की तरफ एक कमरा था। पूर्व की तरफ था एक विशाल बैठक। उसके पास ही एक छोटा-सा शयनकक्ष (बैडरूम)। अपना सर्वस्व समाज को यूँ अर्पित कर दिए कि private space एक छोटे कमरे जितना ही रह गया। किसी भी प्रकार के रहीसी ठाट-बाट का निशान नहीं और हर एक कमरे की दीवारों पर टंगे भर-भर के किताबों की अलमारियाँ। यह थे बंगाल में साक्षरता के जनक, ईश्वरचंद्र बंदोपाध्याय, ‘विद्यासागर’।
“ये इतनी सारी किताबें पढ़ी हैं इन्होनें?” ठाकुर ने हँसकर कहा- एक बेहद्द ही उदासी भरी हँसी।
“यह तो पूरी अविद्या हैं सब! वह कहाँ हैं? उनको जानना ही तो सबसे महत्वपूर्ण है। इतनी पढ़ाई कर लिए पर उस ‘एक’ को ही नहीं जान पायें ये।”
विद्यासागर बैठक में ही कुछ दूरी पर थें। ठाकुर को देखकर वो उनकी तरफ बढ़ें स्वागत करने के लिए। आमने- सामने थें दो महापुरुष। विद्या और पराविद्या की आँखें चार हुईं। ठाकुर ने देखा ‘सागर’ को और ‘सागर’ के सामने थें स्वयं ‘ठाकुर’।
…………
आगे क्या हुआ? क्या ठाकुर ने विद्यासागर जी की कुटाई की? या ठाकुर स्वयं विलीन हो गए बंगाल के ABCD वाले अब्बा के ज्ञान के अथाह समंदर के? अगले part में। 😊😊
Loads and loads of Love and Jai Shri Hari to you all!
Pic Courtesy : Zee Bangla TV serail, Rani Rashmoni.
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