धर्मसंगिनी – यशोधरा

 

यशोधरा (भद्दकच्चाना) के गुण भगवान से अज्ञात नहीं थे। अतः वे स्वयं उसके निवास स्थान पर गये। महाराज शुद्धोधन भी उनका भिक्षापात्र लिए साथ

गये। सारिपुत्त और मोग्गल्लान भी साथ गये। भगवान ने अपने दोनों प्रमुख शिष्यों से कहा कि यशोधरा चाहे जिस प्रकार उनका वंदन करे, उसे मत रोकना। 

 

कोई नारी एक गृहत्यागी श्रमण के शरीर का स्पर्श नहीं कर सकती। पांव का भी नहीं। यह तो साधारण श्रमण ही नहीं, अरहंत हैं, सम्यक-संबुद्ध हैं। कोई नारी, भले उनकी पूर्वपत्नी ही क्यों न हो, उनके शरीर का स्पर्श कैसे कर सकती है? 

 

परंतु महाकारुणिक भगवान के मानस में असीम मैत्री

का उत्स (स्रोत) फूट पड़ा। देवी यशोधरा आयी और उन्होंने भगवान के सम्मुख बैठ कर उनके पांव पकड़ कर मनचाही वंदना की। किसी ने कोई रुकावट उत्पन्न नहीं की। इस पर महाराज सुद्धोदन ने देवी यशोधरा के गुणों का संक्षेप में वर्णन किया-

 

– जब आपने घर-गृहस्थी त्याग दी और लौटने की कोई संभावना नहीं रही, तब राजवंश के अनेक राजकुमारों ने इस परित्यक्ता युवती के साथ संबंध जोड़ना चाहा । परंतु मेरी बेटी ने उनकी ओर नजर उठा कर भी नहीं देखा।

 

– मेरी बेटी ने जब सुना कि आपने श्रमण वेश धारण करते हुये मुंडन कर लिया, तब से इसने भी अपने सिर का मुंडन करवा लिया।

 

– जब से सुना कि आपने सभी गेरुए वस्त्र धारण कर लिए हैं, तब से इसने भी मुलायम राजसी वस्त्रालंकार त्याग कर, रूखे गेरुए वस्त्र धारण कर लिए।

 

– जब से सुना कि आप एक वक्त ही भोजन ग्रहण करते हैं, तब से यह भी एकाहारी हो गयी।

 

– जब से सुना कि आपने ऊंचे आरामदेह पलंग पर लेटना त्याग दिया है, तब से यह भी नीचे मंच पर सोने लगी।

 

-जब से सुना कि आपने माला, गंध, विलेपन धारण करना त्याग दिया है, तब से इसने भी उन्हें छूआ तक नहीं।

 

-जब से सुना कि आपने नृत्य, गीत, वादन आदि आमोद-प्रमोद त्याग दिये हैं, तब से इसने भी इनसे मुख मोड़ लिया।

 

यह तो होना ही था। कल्पों पूर्व जब सिद्धार्थ गौतम ने तापस सुमेध के रूप में भगवान दीपङ्कर सम्यक-संबुद्ध से भविष्यवाणी सुनी थी कि वह आगे जाकर सिद्धार्थ गौतम के नाम से सम्यक-संबुद्ध बनेगा, तब यशोधरा ने भी उनसे ही भविष्यवाणी सुनी थी कि वह जन्म-जन्मांतरों में धर्मपत्नी बन कर इसका साथ देगी। अब इन दोनों का यह अंतिम जन्म था। 

 

वह पत्नी बनी तो सम्यक-संबुद्ध बनने में सिद्धार्थ गौतम का साथ कैसे नहीं देती? यशोधरा के मानस की यह पृष्ठभूमि न होती तो वह पति के त्यागने पर

एक साधारण गृहिणी की भांति विलाप करती। अपने भगोड़े पति को कोसती। अपने शृंगार का त्याग नहीं करती बल्कि अत्यंत सुंदरी, रूपवती युवती राजकन्या होने के कारण किसी अन्य राजकुमार को चुन कर पुनर्विवाह कर लेती और सांसारिक सुख का जीवन जीती।

 

परंतु यशोधरा तो बोधिसत्त्व की जन्म-जन्म की धर्मसंगिनी थी। ऐसा कैसे करती भला? खूब समझती थी कि किस महान उद्देश्य के लिए पति ने घर छोड़ा है। विलाप करने के स्थान पर उसकी सफलता की मंगलकामना ही करती रही।

 

🌷महाअभिज्ञावती हुई🌷

 

प्रव्रज्या ग्रहण करने के बाद यशोधरा (भद्दकच्चाना) विपश्यना भावना में उद्योगपूर्वक जुट गयी। शीघ्र ही उसने भवमुक्त अरहंत अवस्था प्राप्त की। 

 

भगवान पदुमुत्तर बुद्ध के आशीर्वाद के फलस्वरूप उसे महाअभिज्ञा की प्राप्ति हुई। महाअभिज्ञावती हुई। अनेक दुखियारी नारियों के कल्याण में सहायिका बनी। स्वयं तो भवमुक्त अरहंत अवस्था प्राप्त कर जीवन सफल किया ही, अनेकों को इसी मार्ग पर चलने की प्रेरणा प्रदान की।

 

एक बुद्ध के केवल चार श्रावक महाअभिज्ञ होते हैं, शेष श्रावकों को यह सामर्थ्य प्राप्त नहीं होता। भगवान बुद्ध के महाअभिज्ञा प्राप्त करनेवाले

श्रावकों में थे दो अग्रश्रावक (आयुष्मान सारिपुत्त, आयुष्मान महामोग्गल्लान), आयुष्मान बकुल तथा स्थविरी भद्दकच्चाना। 

 

ये लोग असंख्य कल्पों के अपने पूर्वजन्मों को स्मरण कर लेते थे, जबकि अन्य श्रावक केवल एक लाख कल्प तक के जन्मों को ही स्मरण कर पाते थे। चार

असंखेय्य एक लाख कल्प पूर्व भद्दकच्चाना ने भगवान दीपङ्कर सम्यक-संबुद्ध के काल में सुमेध के साथ सुमित्रा नाम से जन्म लिया था। अपने अनेक कल्पों के पूर्वजन्मों को स्मरण करते हुए भद्दकच्चाना को भगवान दीपङ्कर के समय का अपना पूर्वजन्म भी स्मरण हो आया।

 

उसके इस गुण (अपने अनेक पूर्वजन्मों को स्मरण करने की क्षमता) के प्रकट होने पर भगवान ने जेतवनाराम में भिक्षुओं से कहा –

 

“एतदग्गं, भिक्खवे, मम साविकानं भिक्खुनीनं महाभिज्ञप्पत्तानं यदिदं भद्दकच्चाना”

 

[भिक्षुओ, मेरी भिक्षुणी-श्राविकाओं में ये अग्र हैं – महा अभिज्ञाप्राप्तों में अग्र “भद्दकच्चाना”]

 

पुस्तक: राहुल माता (यशोधरा)

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