अमृता जी की पोस्ट पढ़ने के बाद उनके सवाल से मेरे मन मे एक सवाल कौंधा की ये हस्ति और ये वीरान स्थान, सूखा पेड़ और कुछ घास फूस कुछ कहना चाह रहे शायद, क्यों न जिग्यासा के रथ को साजा जाय और कल्पना के अनंत आकाश की सैर की जाय, क्या पता ये हस्ति मेरी कल्पना से कुछ कहना चाह रहा हो।
आइये चलते हैं,
हाथी प्रतीक है हमारे मन का ,सूखा प्रतीक है हमारे चित्त का और सामने नीला आसमान प्रतीक है , उस असीम शांति का जो में कूटस्थ/ ध्यानस्थ होने के बाद दिखना शुरू होता है।
हम सब की स्थित ज्यादातर समय इस हाथी से भिन्न नही होती। अगर एक क्षण के लिए इस हाथी को अपना मन मान लिया जाए तो चित्रपट कितना साफ हो जाता है। हाथी (मन) रेगिस्तान में घूम-घूम कर थक जाता है, शायद उसकी प्यास (इच्छा) अभी अपूर्ण है । उसे हर कीमत पर अपनी इंद्रियों की क्षुधा को तृप्त करना है, लेकिन मीलों चलने के बाद, सैकड़ों स्त्रोतों से प्यास बुझाने के बाद भी ,उसकी प्यास बुझी नही। इतना लंबी यात्रा (जन्म-जन्मांतर) से वह थक जाता है, और अपने पशुवत स्वभाव के प्रतिकूल ,पास के जीर्ण वृक्ष की डाल पे बैठ जाता है, ऐसा करते ही वह क्या देखता है कि ,जैसे ही उसकी मेरुदंड सीधी हुई उसके अंतर्मन रूपी सागर में मंथन शुरू हो गया ,घंटों के मंथन के पश्यात उसे लहरों की आवाजे सुनाई देने लगती है जो शायद किसी बड़े सागर की सी जान पड़ती हैं। ये शायद उसके विशाल कर्ण पंखों की संवेदनशीलता के कारण संभव हुआ हो, उसने जब अपनी आंखे खोली तो उसके सामने से धूल-धूसरित रेगिस्तान का वातावरण गुम सा हो रहा है और उसकी जगह कोमल नीली रोशनी का ,आखों को ठंडक देता नीला क्षितिज है। अहा! शायद वो अब किनारे पर आ गया है, उसकी नैया पार हो गयी ,उसकी भूंख शांत हो गयी, उसके सामने अब पूरा सागर है उसका स्वयं का सागर जिसमे वो जब चाहे तब डुबकी लगा सकता है। शांति का सागर ,आनंद का सागर।
शायद इसी सागर की बात हमारे ऋषि जन करते आएं है । आनंद का अथाह सागर ,सबका अपना निजी सागर।
कौन-कौन अपने इस सागर को ढूंढ रहा है? उस हाथी की तरह चार पैर को त्याग कर हमें दो पैरों पे आना ही होगा अपना मेरुदंड सीधा करना ही होगा और मंथन कर आनंद के अमृत को छकना ही होगा।
ॐ श्री मात्रे नमः⚛️🌺🌺👏
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