अध्याय-2

“यहां से आगे अस्त्र खण्ड शुरू होता हैं।”

अच्छा! मगर यहां तो कुछ खिड़कियां जेसी आकृति ही दीवार पर दिख रही है।

“उस समय अस्त्र प्रकृति की आदि शक्तियों को उपयोग कर रक्षा के उद्देश्य से, महान ज्ञाताओ ने खोजे थे, जिनका अहवाहन प्रकृति में से ही एक मांत्रिक यंत्र द्वारा होता था। वह यंत्र सुष्म और उपयोग के समय ही दृष्टिगोचर होते थे, इस कारण यहां उनको चलचित्र के रुप में दर्शाया गया है।”

अच्छा तो ये सब प्राकृति में मौजूद उर्जा का उपयोग रक्षा के लिए करने जैसा है। हमारे काल में भी न्यूक्लियर उर्जा से न्यूक्लियर अस्त्र बनाए गए हैं।

“जी, चलिए किसी खिड़की पर देखिए”

* विद्युत अस्त्र, प्राकृति की विद्युत् उर्जा को एकत्रित कर, किसी भी स्थान पर लक्ष्य करने में सक्षम।*

*चलचित्र*

अच्छा तो इस प्रकार मांत्रिक यंत्र से उर्जा का आह्वाहन होता था। ये मंत्रिकी यंत्र ही अस्त्र है फिर तो?

“हां, कह सकते हैं। मगर फिर हम इनकी तुलना ही कर रहे हैं”

हां शायद फिर मैं तीर कमान, बंदूक से इनकी तुलना कर रहा हूं!

“मांत्रिक यंत्र एक विशेष प्रकार की ऊर्जा को संगठित करने के लिय बनाए गए यंत्र थे। कुछ ऊर्जाएं प्राकृति में किसी विशेष स्थान या वस्तु में ज्यादा मात्रा में होती है। मांत्रिक यंत्र उन ही वस्तु या स्थान का योगिक स्वरूप है। मगर कुछ अस्त्र बिना मांत्रिक यंत्रों द्वारा आवाहनित होते हैं। इस खिड़की पर देखिए।”

*भ्रम अस्त्र , भ्रम की उर्जा को अहवानित करने के लिए प्रयोग में लाए जाने वाला अस्त्र!*

*चलचित्र*

इसमें तो मात्र एक तिनके से ही मंत्रिक यंत्र का कार्य हो गया। ये अस्त्र तो किसी भी वस्तु के उपयोग से अहवनित हो सकता है, ऐसा क्यों?

“जिस प्रकार हर वस्तु भ्रम हैं, तो उर्जा भी हर वस्तु में होगी। किसी भी वस्तु को मात्र मंत्रीकी से भ्रमस्त्र को अहवानित किया जा सकता है। वह वस्तु ही उस पल मात्रिकी का यंत्र बन जाती है।”

अदभुत। फिर तो इसको जानने वाला बहुत शक्तिशाली बन जाता होगा, सब तो उसको पूजते होंगे!

“इसे पुरुषार्थ कहते हैं। इस कारण ही उस अदभुत सभ्यता को जाना पड़ा था”

पुरुषार्थ, अच्छा हा मतलब ??…

“हर कार्य को धर्म परायण होना चाहिए, मतलब उस हिसाब से की वह सही हो! सही का मतलब एक व्यक्ति विशेष के लिय नहीं परंतु हर एक वस्तु के लिए, जीवित या मृत! जिस प्रकार हर वस्तु भ्रम है उस ही प्रकार हर प्राकृति के लिए सब एक सामान है, जिस प्रकार मां अपने बच्चों में अंतर नहीं रखती प्राकृति भी निर्मोह निर्वेर अवस्था में रहती हैं”

अच्छा इसे पुरुषार्थ कहते हैं। मगर मुझे कहना नहीं चाहिए मगर ये मेरे अंदर भी है। हमारे काल में हम मनुष्य अपनी अपनी ही सोचते हैं, हम तो पूरी मानवता का भी नहीं सोचते तो प्राकृति में मौजूद अन्य वस्तु का क्या ही सोचेंगे!

“ये एक सत्य है कि समय के साथ प्रकृति ऐसी सोच को हटा देती है। देखना ये होता है कि सोच हटती है या दूषित मानवता ही हटाई जाती, इसका उत्तर समय बताता है।”

अच्छा…….

“चलिए आगे चलते हैं!”

श्री कृष्ण 

*परिशिष्ट भाग 

यह पद लेखक की कल्पना पर आधारित है। इससे किसी व्यक्ति विशेष जाति अथवा धर्म का कोई संबंध नही है।